Tuesday, January 30, 2018

महात्मा गांधी: पुण्यतिथि पर शत् शत् नमन |

महात्मा गांधी : अहिंसा के पूजारी, राष्ट्रपिता व भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अगुवा |
महात्मा गांधी द्वारा अपनी पत्नी कस्तूरबा को लिखे एक खत से उनके जीवन व अपने देश के प्रति समर्पण की झलक मिलती हैं तो एक संस्मरण में उनके समय प्रबंधन की झलक वहीं उनका हत्यारा नथूराम गोडसे महात्मा गांधी के द्वारा की गई देश सेवा के प्रति नतमस्तक था |
--------
                         09.11.1908
तेरी तबीयत के बारे में श्री वेहर ने आज तार भेजा हैं | मेरा ह्रदय चूर-चूर हो रहा हैं; परंतु तेरी चाकरी करने के लिए आ सकूँ, ऐसी स्थिति नहीं है | सत्याग्रह की लडा़ई में मैंने सब कुछ अर्पित कर दिया है | मैं वहां आ ही नहीं सकता | जुर्माना भर दूं, तभी आ सकता हूं | जुर्माना तो हरगिज़ नहीं दिया जा सकता ! तू साहस बनाए रखना | कायदे से खाना खाओगी तो ठीक हो जाओगी | फिर भी मेरे नसीब से तू जाएगी ही, ऐसा होगा तो मैं तुझको इतना लिखता हूँ कि तू वियोग में, पर मेरे जीते-जी चल बसेगी, तो बुरी बात न होगी | मेरा स्नेह तुझ पर इतना कि मरने पर भी तू मेरे मन में जीवित ही रहेगी ! यह मैं तुझसे निश्चचयपूर्वक कहता हूँ कि अगर तुझे जाना ही होगा, तो तेरे पीछे मैं दूसरी स्त्री करने वाला नहीं हूँ ! यह मैंने तुझे एक-दो बार कहा भी हैं | तू ईश्वर पर आस्था रखकर प्राण छोड़ना, तू मरेगी तो वह भी सत्याग्रह के अनुकूल है | मेरी लडा़ई केवल राजकीय नहीं है | यह लडा़ई धार्मिक है अर्थात अति स्वच्छ है | इसमें मर जाएँ तो भी क्या और जीवित रहें तो भी क्या ? तू भी ऐसा ही जानकर अपने मन में ज़रा भी बुरा नहीं मानेगी, ऐसी मुझे उम्मीद है | तुमसे यह मेरी माँग है !
                                 -म. गांधी
-----------------------
महात्मा गांधी का समय प्रबंधन हम सबके लिए अनुकरणीय हैं -
महात्मा गांधी वक्त के पाबंद थे | समय प्रबंधन को लेकर उनका विचार था कि जितना काम हम कर सकते है, अगर उससे कम करते है, तो यह एक प्रकार की चोरी है | इसीलिए गांधी इस पर हमेशा जोर देते थे |
समय प्रबंधन का गांधी जी के जीवन का एक सटीक उदाहरण -
एक प्राध्यापक को लिखे पत्र में वे कहते है: मेरी घडी़ मुझे याद दिला रही है कि अब चहलक़दमी का समय हो गया है और उसकी आज्ञा का पालन मुझे करना ही होगा, इसलिए मैं इस पत्र को यहीं समाप्त करता हूं |
--------
30 जनवरी 1948 पांच बजकर बारह मीनट पर नथूराम गोडसे ने प्रार्थना सभा के लिए जा रहे महात्मा गांधी को गोली मारकर हत्या कर दी | पुरा देश स्तब्ध रह गया | बापू के प्रति पुरे देश की श्रद्धा थी |
नथूराम गोडसे भी उनके देशसेवा का कायल था पर अंतिम समय में गोडसे महात्मा गांधी को हिन्दुस्तान के बँटवारे का दोषी व पक्षपाती माना और इस दुष्कृत्य को अंजाम दे बैठा |

नथुराम गोडसे 'गांधी वध क्यों?' में लिखता है - "मैं मानता हूँ कि गांधी जी ने देश के लिए बहुत कष्ट उठाए, जिसके कारण मैं उनकी सेवा के प्रति एवं उनके प्रति नतमस्तक हूँ, किंतु देश के इस सेवक को भी जनता को धोखा देकर मातृभूमी के विभाजन का अधिकार नहीं था |
मैं किसी प्रकार की दया नहीं चाहता हूँ |  मैं यह भी नहीं चाहता हूँ कि मेरी ओर से कोई दया की याचना करे |
अपने देश के प्रति भक्ति-भाव रखना यदि पाप है तो मैं स्वीकार करता हूँ कि वह पाप मैंने किया है | यदि वह पुण्य है तो उससे जनित पुण्य-पद पर मेरा नम्र अधिकार है |
मेरा विश्वास अडिग है कि मेरा कार्य नीति की दृष्टि से पूर्णतया उचित है | मुझे इस बात में लेशमात्र भी संदेह नहीं कि भविष्य में कीसी समय सच्चे इतिहासकार लिखेंगे तो वे मेरे कार्य को उचित ठहराएँगे |
                         -नथूराम गोडसे
-------------------
🖋 दीप सिंह दूदवा

Monday, January 29, 2018

गांव की शांत फिजां में जहर घोलता जातिवाद


{पन्द्रह वर्ष पुर्व तक गांव का दृश्य}

समाचार मिला की अब वो इस दुनियां में नही रहा | पुरे गांव में शोक की लहर छा गई | गांव में छत्तीस कौम के लोग सफेद कपडा़ सिर पर बांधकर उसके घर की ओर दौड़ने लगे | देखा, तो घर के लोग रो-रो कर शोक मना रहे है | गांव के बुजुर्ग व महिलायें उस परिवार को सांत्वना देते हुए ढांढस बढा रहे है, तो दुसरी तरफ गांव के युवा लोग अर्थी बनाने में सहयोग करते हुए अंतिम यात्रा की तैयारी कर रहे हैं |
अर्थी तैयार होने के बाद  कुछ रस्मोरिवाज अदा कीये गये,  बाद में परिवार के लोगो द्वारा अर्थी को कंधा दिया गया | 'राम नाम सत् है' के मंत्रो के साथ अंतिम यात्रा शमसान तक पहुंचती है, जहां पहले से ही गांव के युवाओं ने पहुंच कर लकडी़यों का ढेर लगा दिया था | अर्थी को कंधो से उतारा गया और रस्मों रिवाज उपरांत पार्थिव देह को लकडीयों के ढेर पर रखा गया, जिसे उसके सबसे बडे पुत्र ने भारी मन से अग्नि स्नान करवाया | कुछ समय वहां रूकने के बाद सब लोग उसके घर की ओर लौटने लगे, उनके घर पहुंचने से पहले ही गांव के लोग चाय और खाना लेकर आ चुके होते है | क्योंकि उस दिन शोक वाले के घर पर चुल्हा नहीं जलाया जाता है |
 अब गांव के बुजुर्ग लोग शोक में डुबे परिवार को 'भगवान की मर्जी के आगे कीसी की नहीं चलती' जैसे शब्दों से सांत्वना देते हुए पुरे परिवार को गांव के अन्य घरों से आया भोजन खिलाते हैै | इतने में गांवभर से ट्रैक्टर-ट्रॉली में गांव के लोग अपने घरों से खाट-पलंग, बिस्तर, दूध,दही, सब्जियां और बर्तन ले आते है |
शोक में डुबे घर पर गांव के लोग इस तरह मुस्तैद है कि कहीं कोई कमी न रह जाये, जिससे शोक में डुबा परिवार अपने को इस दुख की घडी़ में असहाय महसूस करें | गांव वालों से इतना सहयोग मिल रहा है कि उस परिवार को महसूस ही नहीं होता कि आज अपने परिवार से कोई सदस्य कम भी हुआ है |
इस तरह गांव के भरपुर सहयोग के साथ एक-एक करते बारह दिन निकल जाते है और उस परिवार को भान तक नहीं होता, कि हमने कीसी को खोया भी है | उन दिनों गांव का वातावरण और अपनत्व ही कुछ ऐसा था कि शोक वाले परिवार को मालुम तक नहीं चलता था कि उसके परिवार से कोई दुनियां छोड़ के जा चुका हैं |
उन दिनों गांव का वातावरण भी कुछ ऐसा था, जिसकी मिसालें बडे़-बडे़ लेखक और कवि अपने साहित्य और कविताओं में उखेरते थकते नहीं थे |
आज ! समय और लोगों की मानसिकता ने करवट बदल दी है  | आज लोगो द्वारा पाश्चात्य संस्कृति, राजनीतिक महत्वाकांक्षी लोगो का अनुसरण करने, स्वविवेक का उपयोग नहीं कर पाने व जातिवादी सोच के कुचक्र में फंसने से गांव और ग्रामीण संस्कृति की दशा बदहाल होती जा रही है |
अब आज की युवा पीढी़ को सचेत होना होगा! स्वविवेक का उपयोग करना होगा! वरना आने वाली पीढी़ को असली ग्रामीण संस्कृति केवल और केवल मुंशी प्रेमचंद और अन्य लेखकों के साहित्य में ही पढने को मिलेगी |
- 🖋 दीप सिंह दूदवा


Friday, January 26, 2018

गांव के किसानों का कैंप फायर

#कोयल (किसानों का कैंप फायर)
---------------------
कोयल का नाम सुनते ही एक काले पक्षी की छवि उभर आती हैं जिसकी मीठास के हम सब कायल हैं | पर यहां पर 'कोयल' का मतलब पक्षी ना होकर 'कोयल' गांव की एक स्वस्थ परंपरा का नाम हैं | अजीब लगता हैं कि ऐसा कैसा परंपरा का नाम ?
-----------------------
हमारा देश अधिकतर गांवो में ही बसता हैं | वैसे तो भारत की संस्कृति दुनियां की अनुठी व अलबेली संस्कृति हैं | जहां पग-पग पर अलग-अलग परंपराएं व रीति-रिवाज हैं | ऐसा ही एक रिवाज/परंपरा हमारे क्षेत्र में भी हैं जिसका नाम हैं 'कोयल' |
वैसे तो किसान के लिए हर दिन त्यौहार ही होता हैं पर कुछ त्यौहार व परंपराएं अलग अहसास का अनुभव करवाती हैं |
--------------------
कोयल- जिसमें किसान लोग वर्षभर में एकबार अपने खेत के रक्षक देवता रामदेवजी (अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग देवता) को चुरमें का भोग लगाते हैं |
---------------------
'कोयल' का आयोजन सर्दीओं के मौसम में करीब दो महिने तक उजाळे पक्ष में कीया जाता हैं | आयोजन करने वाला परिवार पहले पुरे गांव के लोगो को "हैला" भेजकर रात्रि के समय सभी को आमंत्रित करता हैं | इधर 'कोयल' के लिए बुलावा भेजने वाले के घर पर खुली गुआडी या आंगन में जलाने के लिए लकडीयां सजा दी जाती हैं | फिर रात्री के समय सात बजे से लोगों का आना शुरू हो जाता हैं | लोगों के आते ही लकडीयों में आग लगाई जाती हैं | जैसे-जैसे लोग आते रहते हैं वैसे-वैसे उन जलती लकडीयों के चारों तरफ बैठते रहते हैं | सभी के आने के बाद फिर दौर चलता हैं मनुहारों का ! जिसमें बीडी़-चिलम, चाय व अमल (जो अब लगभग बंधाणीयों तक ही सीमित हो गया हैं ) का | उधर कोयल का आयोजन करने वाले के घर पर धमीड़-धमीड़ की आवाज का गुंजना आरंभ होता हैं (मतलब रामदेव जी को भोग लगाने हेतु चुरमे की कुटाई आरंभ ) जिसमें गांव के युवा पुर्णतया सहयोग करते हैं | इधर लकडीयों पर आग अपने पुरे परवान पर बढने लगती हैं, जैसे-जैसे आग की लपटे उपर बढने लगती हैं वैसे-वैसे ईर्द-गिर्द बैठे ग्रामवासीयों के ठहाकें व उनकी बाते भी परवान पर चढनें लगती हैं | जिसमें न केवल खेती बल्कि गांव की समस्याओं से लेकर वर्तमान राजनीति को चिरते हुए बुजुर्गो के ठेठ बचपन की बाते भी होने लगती हैं | जोर के ठहाकों व भुतकाल के स्वर्णिम किस्सो को सुनकर ठंड खुद भी वहां से अपना पहरा हटाने लगती हैं और फिर होता हैं सर्दी में भी गर्मी का अहसास | दुसरी तरफ कुछ युवा खेजडी़ के नीचे बने थडकलै पर नाळ में अंगारे लिए हुए जाते दिखते हैं और फिर वहां बैठकर रामदेवजी को चुरमें का भोग चढाते हुए होठ हिलाते हैं | ऐसे लगता हैं कि जैसे उनके होठ शायद कह रहे हो "बावजी साजा-ताजा राखजो, पुरा गोव ने भी खुशहाल ऱाखजो, शोंती ऱाखजो, हमके पैदावार में लीला लैर करजौ|"
चुरमें का भोग लगाते ही सबके खाने की तैयारी भी शुरू हो जाती हैं | कैंप फायर के पास ही बिछे राळकै पर ही खाने का प्रबंध होता हैं | बच्चें इसमें अतिउत्साहित रहते हैं, उनके लिये ये मनोरंजन के साथ-साथ आनंद का त्यौहार भी होता हैं | थालीयां, साबळीयां, घी की वाडकी, सब्जी की वाल्टीयां लाई जाती हैं | और फिर शुरूआत होती हैं भरपुर चुरमा परोसने के साथ | कम से कम दो बार चुरमा तो लेना ही पडता हैं, चाहे आप कीतनी भी ना-नुकुर करलो | और दुसरी बार चुरमा नही लिया तो औळबा अलग से सुनने को मिलेगा कि "तुम्होरे वो फळाणा दादाजी-काकाजी तो इतने सोगरे तो केवल नाश्ते में ही हजम कर जाते थे और एक आप हैं कि दुसरी बार भी चुरमा लेने से कतरा रहे हैं | वैसे इस मैदान में बडे़-बडे़ सूरमे भी मौजुद होते हैं, जो तीसरी और चौथी बार भी अपनी बत्तीसी दिखाकर चुरमें वाले को अपनी तरफ आने का निमंत्रण देते भी दिखते हैं | आजकल चुरमें के अलावा हल्दी का भी प्रचलन 'कोयल' में चार चांद लगाने लगा हैं |
करीब तीन-चार घंटे तक चलने वाले इस स्वस्थ परंपरा में मेरे जैसे कई युवाओं  को बहुत कुछ सिखने को मीलता हैं | मैं तो इस 'कोयल' परंपरा को ग्रामीणांचल की लघु फील्म समझता हूं | जिसमें आपको गांव के सन्दर्भ में सैकडों साल पुराने गांव के झुंझार/मामाजी बावसी के इतिहास से लेकर मोदी-केजरीवाल व अनार की नवीनतम खेती की तकनीकी जानकारी भी उपलब्ध हो जाती  हैं |
अंत में गांवो की इन छोटी-छोटी परंपराओं को लेकर इतना ही कहना चाहुंगा, कि यदि ये परंपराएं जीवित रही तो गांव जिंदा रहेंगे और गांव जिंदा रहे तो ये देश और ये संस्कृति भी जिंदा रह सकेगी |
-🖋 दीप सिंह दूदवा

Saturday, January 20, 2018

किस्सा थार की एक मतवाली लड़की का

बात जो मैनें बुजुर्गो से सुनी
----------
ये किस्सा करीब-करीब तीन चार दशक पुराना हैं |
सिरोही के एक बडे़ ठिकाने की बारात बाडमेर के एक बडे ठिकाने में आई थी |
दोनो तरफ से बडे़ घराने होने की वजह से विवाह के इंतजाम राजशाही ठाट से कीये गये थे | रात भर में वर-वधु के फेरों व बारातियों के महफिल का शानदार शांतीपुर्ण आयोजन हुआ |
सुबह बाराती उठे | चाय-नाश्ते के बाद बारातीयों के स्नान का कार्यक्रम बना | उन दिनों भौतिक सुख सुविधाएं गांवो में कम हुआ करती थी, उस वक्त बारात गाँव के सार्वजनिक कुएँ पर ही नहाती थी | सिरोही के सिरदार नहाने के लिए तैयार हुए, काम थोडा मुश्किल था, क्योंकि पानी कुएं से बाल्टी द्वारा सींचकर निकालना था, जबकि सिरोही में पानी का जल स्तर उस वक्त कुछ ज्यादा ही उपर था और तब सिरोही के सिरदार बडे आरामी भी होते थे | कारण भी स्पष्ट था क्योंकि नदियां बहती थी, चारों तरफ कोयल की कूक थी | सौंफ, मक्का, अरण्डी, ज्वार, गेहूं व खरबुजे की खुब खेती थी |
नहाने का कार्यक्रम शुरू हुआ | एक-एक व्यक्ति बैठता और दुसरा व्यक्ति पानी कुएँ से निकालकर उनके उपर डालता | इस तरह पानी की बाल्टी सिंचने वाला व्यक्ति तीन-चार बारातीयों को स्नान करवाता और उसके थकने
 पर दुसरा आ जाता ..
इस तरह कीसी बाराती ने तीन को स्नान करवाया, तो कीसी ने चार को, एक सिरदार थे जो बारात में सबसे हष्ट-पुष्ट और ताकतवर थें, उन्होंने करीब दस-बारह बारातियों को स्नान करवा दिया | अब जिस सिरदार ने दस-बारह जनों को स्नान करवाया था, उनकी सब जने भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे, कि ये देखो ! ये तो बडे ही ताकतवर है, और सभी बाराती भी उनसे ताकत का राज पुछ रहे थे | और वे सिरदार बडे़ जोश में मुँछो पर ताव देकर अपनी ताकत का राज बता रहे थे |
इतने मे गाँव के नाइयों की लडकी का वहाँ पानी भरने के लिए आना हुआ |
लडकी को मालुम था, की ठाकुर साहब के यहाँ बारात आई है [उस समय ठाकुर साहब का गाँव मे बडा सम्मान था] |
इसलिए उस नाईयों की लडकी ने एक सिरदार से बाल्टी माँगते हुए कहा, 'आ बाल्टी दिरावो आप म्हारें गाँव रा मेहमान हो, सभी सिरदारो ने पानी सींच ने स्नान करवा दूँ |'
पहले तो सिरदारो ने आनाकानी करी, सोचा ये लड़की बिचारी एक-आद बाल्टी सींचकर थक जायेगी | लेकिन उसने बार-बार जिद करी तो उसको बाल्टी दे दी गई |
साथियों आपको विश्वास नहीं होगा, उस लड़की ने शेष बचे सभी करीब 40-50 बारातीयों को एक-एक करके अकेली लडकी ने कुँए से पानी सींच कर स्नान करवा दिया |
साथियों अब वहाँ खडा हर एक बाराती आश्चर्यचकित था !
वे सब यह दृश्य देख हैरान थे, की यहाँ की औरतें भी इतनी ताकतवर है, तो यहाँ के पुरुषों व सिरदारों का तो क्या कहना !
इतनी देर तक जो दो-चार बाल्टी कुएं से सिंचकर स्वयं ही अपनी प्रशंसा कर रहे थे वे सभी मौन थे | थार की धरती के प्रती सभी बाराती नतमस्तक हुएे जा रहे थे |
साथियों ! मारवाड के पुरुषों के साथ-साथ यहां की औरते भी बलशाली व स्वाभिमानी रही है | यहाँ का देशी खान-पान, रहन-सहन व यहाँ की परिस्थितियाँ ही इन्हें इतना मजबुत व संघर्षशील बनाये रखती हैं |

[मेरे इस कहानी का उद्देश्य धोरा-धरती के सादे जीवन मे छिपी एक ताकत से अवगत करवाना था |
वैसे आजकल सिरोही में भी पानी का स्तर नीचे चला गया है, वे भी अब पहले जितने आरामी नही रहे 😊]

- दीप सिंह दूदवा

Wednesday, January 17, 2018

जगतू की सगाई रस्म

आज कौआ घर के आंगन वाले नीम पर लगातार सुबह से ही बोले जा रहा था | कौऐं की मीठी बोली कीसी मेहमान के आने की संकेत थी | तब गांव में टेलीफोन व तार की सुविधा नहीं थी और ना ही इतने संसाधन थे | गांव के बुजुर्ग लोग पशु-पक्षियों व प्रकृति के संकेत मात्र से ही अनुमान लगा लेते थे कि आज क्या होने वाला हैं | आज कौऐं के लगातार बोलने से दादी ने अनुमान लगा दिया की आज तो पक्का ही जगतू को देखने के लिए मेहमान आ सकते हैं | क्योकिं कुछ दिन पहले ही पास के गांव वाले धरमाजी ने पडोसी धनजी के साथ समाचार भिजवाये थे, कि वो कानजी की लडकी जगतू को अपने पुत्र हरचंद के लिए कुछ दिनों में ही देखने आने का मानस बना रहे हैं इसलिए कानजी तक समाचार पहुंचाने का बोला था | ऐसे में कौएें की चेतावनी धरमाजी के आने के संकेत को पुख्ता कर रही थी |
अब तक घर के सारे सदस्य सतर्क हो चुके थे | सांझ भी धिरे-धिरे ढल रही थी | ऐसे में घर में हुई हलचल से जगतू भी सावचेत हो चुकी थी उसने आज अपने ननीहाल से मिली नीली ड्रैस पहन रखी थी जो उसके हल्के सांवले रंग में चार चांद लगा रही थी | सांझ ढलने के साथ जगतू अब चुल्हें पर आ चुकी थी | जैसे ही पहली रोटी बनी वैसे ही तवा हंसने लगा | उसने दादी को जोर से आवाज देते हुए कहा,"दादी मां आज तवो हंसे हैं"| दादी मां ने जगतू के पास में आकर कहा, "हां बेटा मेहमान आवे हैं रोटी अर सब्जी ठीक बणाइजे"| जगतू को पुर्वानुमान होते हुए भी दादी से मजाक में पुछा, " म्हारे मोमाळ ती मोमो आवता वेई घणा दिन हुआ हैं आया नै"| दादी ने बात टालते हुए कहा, "देख बेटा मेहमान आवै जदेइज ठा पडी़ कुण आवे हैं, खालसा बस रे आवण रो टाइम तो वै ग्यों हैं"| जगतू मन ही मन खुश हुए जा रही थी क्योकिं आज यदि वो ही मेहमान आते हैं, तो कल तक सगाई पक्की हो जायेगी |
सांय सात बजते ही गांव की तरफ बस का हॉर्न बजा, तब सब की निगाहें गांव की ओर से आने वाली पगडंडी पर टिक गई | देखा तो दुर से एक व्यक्ति साफा पहने हुए हाथ में लोहे का बक्सा लिए एक महिला के साथ कानजी के घर की ओर ही आ रहा हैं | कानजी ने खडे़ होकर निगाहें डाली, देखा की धरमाजी ही अपनी पत्नी के साथ आ रहे थे | कानजी ने अपने पुत्र गमना को आवाज देते हुए कहा,"अरे ! गमना धरमाजी रे सामो जा" | गमना ने फटाफट पगरकी पहनी और आने वाले गिनायत की मैजबानी के लिए सामने दौड़ पडा़ | गमना ने पहले राम-राम की फिर धरमाजी के हाथ से लोहे का बक्सा व उनकी पत्नी के हाथ से लाल घोडा़-काला घोडा़ चाय का थैला ले लिया और आगे-आगे चलने लगा | जैसे ही धरमाजी ने घर में प्रवेश कीया वैसे ही कानजी ने अतिउत्साह में राम-राम कहकर धरमाजी को गले लगा दिया | उनकी पत्नी को भी राम-राम कहकर अन्दर आने को कहा | कानजी की पत्नी ने जगतू की होने वाली सास की आगवानी की और आंगन के बीच में लाकर दरी बिछाकर बिठाया | जगतू की छोटी बहिन वगतू ने उनको पानी पिलाया | वगतू भी ग्यारवीं में पढ रही थी, एकबार तो धरमाजी की पत्नी ने सोचा यही जगतू हैं, पर एक कोने में चुल्हें पर खाना बनाते जगतू को देखकर ही समझ गई कि होने वाली बहू चुल्हें पर रसोईं बना रही हैं | कानजी की पत्नी उनसे समाचार लिए जा रही थी, तो धरमाजी की पत्नी जवाब के साथ-साथ चुल्हें पर रसोई बना रही जगतू को टुकर-टुकर देखे जा रही थी और मन ही मन खुश हुए जा रही थी, क्योंकि कुछ ही मीनटों बाद अपनी होने वाली बहू के हाथ का खाना नसीब होने खाने वाला जो था | पहले जगतू ने मेहमानो के लिए चाय बनाई और पुन: खाना बनाने में लग गई | दुसरी तरफ धरमाजी व कानजी के ठहाकों से अब पुरा घर गुंज रहा था |
 ऐसे लग रहा था जैसे दो मित्र लंबे समय बाद मिले हो | खुशी का जश्न इसलिए भी था कि दोनों को बराबर की जोडी़ मिल रही थी | एक तरफ धरमाजी के पुत्र हरचंद का इस वर्ष एमबीएसएस प्रथम वर्ष पुर्ण हुआ था | वहीं दुसरी तरफ कानजी की पुत्री जगतू ने भी इस बार बारहवीं कक्षा को पुरे जिलें में तृतीय स्थान के साथ पास कर, बीएससी प्रथम वर्ष में प्रथम रैंक के साथ मनपसंद कॉलेज में प्रवेश लिया था | दोनों के ही पुत्र-पुत्री प्रतिभावान थे| दोनो की आर्थिक स्थति तो सामान्य ही थी, पर दोनों ने ही बच्चों की शिक्षा को प्राथमिकता दी थी | बातो का दौर चल ही रहा था कि इतने में जगतू ने शर्माते हुए अपनी होने वाली सास के चरण स्पर्श कीये | सास ने गौर से जगतू के चेहरे को देखकर संतोष की सांस लेते हुए, "जुग-जुग जीओ बेटी" का आशिर्वाद दिया | अब तक खाना बन चुका था | धरमाजी के लिए बाहर खाना लगाया गया तो अन्दर की तरफ जगतू की होने वाली सास के लिए | अब मनवार का दौर चल पडा़, बाहर की तरफ कानजी अपने गिनायत को मनवार पर मनवार कर ठहाकें लगा रहे हैं तो अन्दर की तरफ जगतू की मां होने वाली समधन को मनवार कीये जा रही थी | इस तरह सबने हंसी-खुशी से खाना खाया | दोनों परिवार वालों ने एक दुसरे के समाचार लिए और एक दुसरे को पुर्णतया जाना | दोनों की ही बातो से लग रहा था कि दोनो बडे़ खुश थे |क्योंकि दोनों को जिस तरह के रिश्ते की चाह थी वैसा ही रिश्ता मिला था | इस तरह बातो ही बातो में आधी रात कब गुजरी कोई पता ही नहीं चला, अब सब राम-राम कहकर सोने चले गये |
जैसे ही सुबह हुई जगतू के परिवार के सभी सदस्य जल्दी से उठ गये और गाय-भैंस दुहने व अन्य काम में लग गये | जगतू ने सभी के लिएे चाय बनाई | मेहमान भी जग चुके थे |अब सबने एकसाथ बैठकर चाय पी | जगतू भी अब स्नान कर नये कपडों के साथ तैयार हो चुकी थी | अब जल्द ही सगाई की रस्म को भी सुबह-सुबह ही शुभ मुहुर्त में निपटाना था | क्योंकि धरमाजी के गांव की ओर जाने वाली एकमात्र बस भी दस बजे ही आने वाली थी | अब
जगतू को एक छोटे से बाजोट पर बिठाया गया | जगतू की सास ने उसे पहले तिलक लगाया फिर अंगुली में अंगुठी पहनाई और मुंह में गुड देते हुए अपने परिवार की परंपरा, संस्कृति के अनुरूप चलते हुए निरंतर पढने की भोळावण दी | जगतू भी अब थोडी खुल चुकी थी | उसने अपने सास से धोक देकर आशिर्वाद लेते हुए नौकरी लगने तक पढने की इच्छा जाहिर की | सास ने भी निरंतर पढते की बात कहते हुए मजाकिया लहजे में कहा कि," हरचंद भी डॉक्टर बणैला, इण वास्ते थू भी पढाई निरंतर राखजै नी तो थारी और हरचंद जोडी़ कीयां जमैळा" | इस बात पर सबने जोर का ठहाका लगाया जिससे घर का माहौल एकदम हल्का हो गया, अब ऐसा नहीं लग रहा था कि घर में कोई मेहमान हो क्योंकि अब सब जने एक ही परिवार के सदस्य लग रहे थे | इतने में धरमाजी ने भी घर में प्रवेश कीया और कानजी से मजाकिया लहजे में कहा कि" समधी जी डॉक्टर साहब रे घर ती डॉक्टरोणीसा रा दर्शन में भी कर लेवूं, बेटा ने आशिर्वाद रो हक तो अब म्हारों भी बणै हैं" | और धरमाजी ने जगतू को अपने पास बुलाया | जगतू ने अपने ससूर के धोक लगाई और सिर झुका कर खडी़ रही  | ससूर ने जेब से ग्यारह सौ रूपये निकालकर जगतू को देते हुए कहा कि, "बेटा खुब पढाई करजै, थानै ही म्हारों घर संभाळणों हैं"| इस तरह बातो ही बातो में जगतू व हरचंद के सगाई बंधन की रस्म को अंतिम रूप दिया जा रहा था, कि इतने में दुर से बस का हॉर्न सुनाई दिया | धरमाजी और उनकी पत्नी बस के लिए तैयार हुए | अब दोनों ही परिवार बेहद खुश थे | अब धरमाजी व उनकी पत्नी भारी मन से विदाई ले रहे थे | आखिर मन भारी हो भी क्युं न! उनकी बहू से विदा जो ले रहे थे | कानजी व उनकी पत्नी के साथ-साथ जगतू की दादी भी उन्हें घर से बाहर तक छोडने के लिए आये | समधी व समधन जी ने कानजी व उनकी पत्नी को अपने घर आने का न्यौता देते हुए विदाई ली | गमना ने उनके सामान को पकडा़ और बस स्टैंड तक छोडने गया | और इस तरफ घर में वगतू भी जगतू को टॉक्टरोणीसा-डॉक्टरोणीसा कहकर मजे लेने से नहीं चुक रही थी  | जगतू मजाक में वगतू की चोटी खींचकर मुक्के लगाते बनावटी गुस्से में कह रही थी, "बोल अब कहेगी डॉक्टरोणीसा"| इधर वगतू भी मिठाई खिलाने की शर्त पर ये शब्द नहीं कहने की जिद्द कर रही थी |
आज कानजी व उनका परिवार बडा़ खुश था | दादी भी पुरे जोश में थी | बहुत दिनों से उलाहने सुनने वाली दादी ने कहा कि, " आण दे अब उण वेलजी पंच ने, जो गांव-गांव केहतो फिरतो कि ऐहडो पछै कानीयों काई उणरी छोरी ने  डॉक्टर ती परणा देई, इती पढावणउ काई फायदो सामै लडको भी तो ढंग रो पढ्योडो मिलणो चाइजै"| कानजी ने मां को समझाते हुए कहा, "मां रैहण दे लोग तो केहता फिरैैला किण-किण रो मुंह आपां बंद कर सको" | इधर कानजी व उनकी पत्नी एकदम निश्चिंत हो चुके थे |अब जगतू व वगतू की पढाई के खातिर गांव के लोगो व पंचो का एक भी ताना कभी नहीं सुनना पडेगा |
चित्रपट चल रहा हैं दृश्य बदल रहे थे |
- 🖋 दीप सिंह दूदवा

Tuesday, January 16, 2018

मेहनत से मोहब्बत को मिला मुकाम

फोन की घंटी.... घंटी बजते देख प्रदीप ने अपने जेेब से मोबाईल बाहर निकाला ...  देखा राधा का फोन था ! राधा प्रदीप की पत्नी थी ! एक बार तो सोचा कि उसने मोबाईल में बेलेंस डलवाने के लिए या युं ही टाइम पास के लिए फोन कीया होगा ! पर सप्ताह भर से राधा से बात नही हुई थी, इसलिए पहली घंटी में ही फोन उठाते हुए बोला हैल्लो ! राधा....
सामने से आवाज आई ... हैल्लो! राधा नही ... मैडम राधा कहिये ... आजसे आपकी राधा ...मैडम राधा बन गई हैं .. आज अभी तृतीय श्रेणी शिक्षक भर्ती का अंतिम रिजल्ट आया हैं .... मेरा जिले में पच्चीसवीं रैंक पर चयन हुआ हैं ...  मुझे मिठाई खिलाने के लिए आज ही रवाना हो जाओ .. और हां वादे के अनुसार एन्ड्रॉयड फोन भी ले आना ... अब तुम खुश हो न .. अब तो मुझे बाहर घुमाने ले जाओगे न, अपने साथ ... अब दोस्त व उनकी बीवीयो से मेरा परिचय करवाते शर्म भी नही आयेगी न प्रदीप जी ... अब तो बहाने मत बनाना ...प्लीज यार ... पहला टूर उदयपुर ही रख लो न... आपके मित्र सीआई साहब बीसीयो बार मेरे संग आपको आने का निमंत्रण भी दे चुके हैं .... खुब मजा आयेगा .. बारिश के बाद तो उदयपुर भी बहुत हरा-भरा हो गया होगा .... सुना हैं वहा झीले भी खुब हैं .... अपन चलेंगे न प्रदीप जी !
राधा एक ही रफ्तार से बोली जा रही थी .... अपने में दबे हजारों ख्वाब उडेल दिये ....
प्रदीप चाहकर भी कोई लब्ज बाहर नही निकाल पा रहा था !  बडी़ मुश्किल से दो शब्द बोल पाया, "राधा चार घंटे में मैं तेरे पास ही आता हूं, वहीं आकर कुछ कह पाउंगा" ! और फोन रख दिया .....
और प्रदीप आंख से पानी पोछते हुए पुराने ख्यालो में खो गया .... .......... ..........
-----
{प्रदीप के दिमाग में फिल्म चलने लगी .... दस साल पहले इसी राधा का विरोध करते हुए मां-बाप को क्या-क्या नहीं सुनाया था ... कानो में गुंजने लगी वो बाते "तुम मेरे मां बाप नही जल्लाद हो जल्लाद .... मैं एमबीबीएस .... और वो पांचवी पास गंवार .... कैसे जमेगी हमारी जोडी ... कैसे वो मुझे समझ पायेगी .... मेरे दोस्त मेरी हंसी उडायेंगे ... .................... तुम मुझे समझते क्युं नही हो ...... ज्यादा से ज्यादा पंच-पटेल अपने परिवार को समाज से बाहर ही करेंगे न ... ... कि ठाळेभुले ने धर्मजी की नाक कटवा दी !  मैं आज डॉक्टर हूं  डॉक्टर ! समाज से बाहर करते ही मैं पंचो को पन्द्रह लाख दंड भर दुंगा ! और समाज में सम्मिलित करवा दुंगा !  पर ये रिश्ता मुझे मंजुर नहीं , आपने मेरी शादी इतनी छोटी उम्र (नौ साल)  में क्युं कर दी  .....??
और अंत में आंख में आंसु बहाते हुए बाप ने कहा था, " हां मैने झक मार दिया, सात बीघा जमीन बेच तुझे डॉक्टर बनाया हैं ! जमीन नही बेचता तो ये सवाल तुझे भी नही सुझते, आज के बाद मुंह मत दिखाना ...."
और अंत में मुझे भारी मन से ये रिश्ता स्वीकार करना पडा़ था !
राधा केवल पांचवी कक्षा पास ही थी, लेकिन बडी़ सुशील व सुन्दर थी !  पढाई में भी तेज थी, पर उसके गांव में पांचवी तक ही स्कुल थी सो आगे पढना नसीब ना हुआ था उसे ...
प्रथम बार जब राधा को गौना कर उसे ससुराल लाया गया था तब से प्रदीप उसकी वाकपटुता और समझदारी से बडा प्रभावित था .....
एक दिन की बात हैं .... प्रदीप खाट पर सोया हुआ झुंपी के बाहर नजर गढाये कीसी ख्यालो मे खोया हुआ था ..... तभी एक आवाज गुंजी, " सुणो ! म्हे भी पढणी चाहूं"
इस आवाज से प्रदीप में एक नवीन उर्जा का संचार हुआ और राधा की आंख में झांकते हुए कहा, "हां पढ तो सके है, पर उण वास्ते खुब मेहनत करणी पडेला" !
राधा-  "हां तो म्हे तैयार हूं ! आप म्हाने पढाई करवा दो नी, मैं पढ लु ला .. ..!
दुसरे दिन ही प्रदीप ने राधा का आठवीं में प्राइवेट फॉर्म भरवा दिया ! और इस तरह  आठवी प्राइवेट, दसवी ओपन,  बारहवीं  ओपन, कॉलेज प्राइवेट, बीएड कोटा ओपन युनिवर्सिटी और फिर  रीट .... !
.....................
आज प्रदीप बहुत खुश था ! प्रदीप ने ताबड तोड स्नान कीया और कार निकाली ....फिर चल दिया अपने ससुराल की ओर ! बीच में कस्बा आया वहां से राधा के लिए आई फोन, मिठाई  और साडी खरीदी ... !
अब प्रदीप मीटरो-मीटर गाडी भगाये जा रहा था ...!
चार घंटे के सफर बाद अपने ससुराल पहुंचा, तो पता चला कि ससुरजी व सालाजी तो  जोधपुर कीसी काम से गये हुए हैं ...!
प्रदीप जैसे ही गाडी खडी कर बाहर निकला तो देखा कि राधा सामने ही खडी-खडी मुस्करा रही थी !
प्रदीप ने अपनी गाडी से आईफोन,साडी और मिठाई बाहर निकाली और चल दिया राधा की तरफ ... !
जैसे ही राधा के पास पहुंचा....  राधा प्रदीप के गले लिपट गई, और दोनो एक दुसरे के ख्वाबो में खो गये !
करीब पांच मीनट बाद मैं... मैं ..मैं .. की आवाज ने उनकी चुप्पी को तोडा़ ! देखा, तो पास में बकरी का बच्चा दो प्रेमीयों के मिलन का साक्षी बन रहा था ! और वो ऐसे मैं..मैं..मैं कर रहा था जैसे, प्रदीप-राधा के पांवो में  मुंह मारते हुए प्यार का म्लहार राग गा रहा हो ! जब दोनो एक दुसरे से दुर हटे, तो देखा दोनो की आंखे भीगी-भीगी थी....... जैसे सात जन्म साथ निभाने का वादा कर रही हो !
-------
✍ दीप सिंह दूदवा

Monday, January 15, 2018

पसरते अखबार, ऊबते पाठक

मुख्य मार्ग से दुर और छोटा गांव होने की वजह से अभी तक मेरा गांव डामरीकरण सड़क से नहीं जुड पाया था । पक्की सडक नहीं होने की वजह से गांव में साधन बहुत ही कम समय-चौघडी ही आते थे | उस समय गांव में साधन के नाम पर कुछ लोगो के पास ट्रैक्टर या एक-दो जीपें ही हुआ करती थी । बस के नाम पर एक बस आती थी जो भीनमाल से सुबह आठ बजे रवाना होकर साढे ग्यारह बजे के करीब मेरे गांव पहुंचती थी । रास्ता कच्चा होने की वजह से बस में एक मजदूर फावडा के लिए हमेशा बस के साथ ही रहता था | न जाने कौनसे वक्त बस कच्चे रास्ते में फंस जाये । बस के फंसने पर मजदूर, बस ड्राइवर और कंडक्टर के साथ-साथ सवारीयां भी नीचे उतरकर टायर के नीचे से रेत हटाकर सिणीये डालकर बस को धक्का देकर बाहर निकालते थे । और इस तरिके से बस बाहर निकलती थी और आगे का सफर तय होता था ।
बात करीब 1996-97 की है घर में दाता व पिताजी पढे लिखे थे, सो अखबार की हमेशा कमी खलती थी । इसलिए देश-दुनियां, फसलों के भाव-ताव और समसामयिक खबरों से जुडे रहने के लिए 1996 में भीनमाल से राजस्थान पत्रिका चालू करवाया गया । भीनमाल से पत्रिका हॉकर अखबार सुबह आठ बजे वहाँ से रवाना होने वाली बस मे चढा़ देता था और साढे ग्यारह बजे मेरे घर के पास से गुजरते वक्त कंडक्टर अखबार मेरे घर के पास फेंक देता था।
उन दिनों अखबार देखने/ पढने के लिऐ हमेशा चार-पांच चेहरे मेरे घर के पास बस का इंतजार कीया करते थे । राजस्थान पत्रिका हाथ में आते ही चेहरे पर अजीब मुस्कान आती थी | या यूं लगता था जैसे बहुत बर्षो बाद कोई रिश्तेदार बस से उतरकर हमारे गले लिपट रहा हो। बडा सुकुन मिलता था | अखबार के पहले पेज से लेकर अंतिम पेज का एक-एक अक्षर बडे गौ़र से पढते थे । लोगो के पास समय पर्याप्त था | अखबार की खबरे पढने के लिए लोग दुर-दुर से अपने खेतो से चले आते थे, फिर वहां फसलों के भाव से लेकर देश दुनियां भर की खबरो से अवगत होते थे । या यूं कहे कि मात्र एक अखबार की प्रति,  राजस्थान पत्रिका ने गांव के लोगों बीच एक अलग रिश्ता बना दिया था ।
हॉकर को हम अखबार के दुगुने दाम देया करते थे क्योंकि बस में चढा़ने की उसकी डेली की गारण्टी थी | लेकिन हमारे लिए उस एक अखबार का दाम तीन से चौगुना हो जाता था क्योंकि कई बार बस मे बैठे हुए यात्री अखबार पढने को ले लेते थे और वे पढते हुए भुल से बिच मे ले उतरते  थे, या कई बार कंडक्टर और ड्राइवर नये-नये होने की वजह से अखबार डालने की जगह का ध्यान नही होने से आगे लेकर चले जाते थे। महिने मे दस-बारह दिन ही अखबार आता था फिर भी कोई गम नही था।
हमे छोटी सी उम्र से ही अखबार पढने का चस्का लग गया था। जिस दिन अखबार हाथ नहीं लगता था, उस दौरान अजीब-सी बैचैनी होती थी। अखबार पढने में दो-चार घंटे लगा देते थे क्योंकि पुरा का पुरा अखबार पढना एक आदत-सी हो गई थी। उस दौर में अखबार में विज्ञापन नाम मात्र के हुआ करते थे ।
            समय बदलता गया 1999 में मेरा गांव डामर सडक से जुड गया | बसों के आवागमन की संख्या बढ गई | एक बस की जगह सात-आठ बसे आने लगी । सडक बनने से अन्य साधनों की संख्या में भी भारी बढोतरी हुई । सप्ताह में दो-तीन बार आने वाला अखबार भी डेली आने लगा | गांव में दिनोंदिन अखबारो की संख्या भी बढी, अब एक से बढकर बीस अखबार आने लगे । हर घर गाडी,ट्रैक्टर और मोटरसाइकिल आम बात हो गई । गांव के लोग कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी का सफर तय करने लग गये। पुलिस की गाडी देखकर बबुल और खिंप की आड मे छिपने वाले लोग पुलिस से आंख से आंख मिलाकर बात करने लग गये |गांव में बकरीयों की जगह घोडो ने ले ली | आठ सौ से हजार रूपये में बिकने वाली बकरीयों की जगह 31लाख में बिकने वाले घोडो ने ले ली ... समय कदम बढा रहा हैं ... अगली बार 31लाख की जगह 41 लाख में घोडा बिक जाय तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी .... समय की गति को कौन नियंत्रित कर सकता हैं ।
....
अब आता हूं मेरी बात पर ....
बचपन से अखबार मुझ सहित हजारों लोगो की दिनचर्या का आम हिस्सा रहा हैं | हम जिस दिन अखबार नही पढ पाते उस दिन यूं महसूस होता है जैसे आज कुछ मिस किया हैं | लेकिन आज अखबार पढने वाले पाठकों की इस प्रवृति का अखबार निकालने वाले घराने चाहे राजस्थान पत्रिका हो या भास्कर | दैनिक नवज्योति हो राष्ट्रदुत |या सभी अन्तर्राष्ट्रीय अखबार जो भरपुर दोहन करते हैं । अखबारों मे आजकल समाचार कम और विज्ञापन ज्यादा होते हैं । कभी समय था जब समाचारों के बिच विज्ञापन हुआ करते थे लेकिन आजकल विज्ञापनो के बिच समाचार ढूंढने पडते हैं । पहले विज्ञापनो को अंतिम पेज पर स्थान दिया जाता था, लेकिन आजकल पहले पेज से ही कभी-कभी तो लगातार चार पांच पेज विज्ञापन के ही दिखते हैं । आज पाठकों को मजबूरन ही न चाहते हुए भी विज्ञापनों पर नजर डालनी पडती हैं । हद तो तब होती हैं जब अखबारों को बेचने के लिए तरह तरह के ऑफर निकालने पड जाते हैं | जो  अखबार कभी खबरों के दम पर बिका करते थे और लोगो में अखबारों की विश्वसनीयता बनी रहती थी । आजकल विज्ञापनों के युग में अखबार अपनी विश्वसनीयता खोते जा रहे हैं | लोगो की पहले जो आस्था अखबारों में हुआ करती थी, अब दिन-प्रतिदिन घटती जा रही हैं । सोसल मिडिया के जमाने में समय रहते अखबार घरानों ने समय रहते पाठकों की समस्या पर ध्यान नही दिया तो अखबारों की लोकप्रियता के साथ-साथ प्रिंटमिडिया पर भी खतरा मंडराता  हुआ नजर आयेगा ।
...
🖋दीपसिंह दूदवा
( मेरी 6 नवम्बर 2016 की फेसबुक वॉल से पोस्ट)

Sunday, January 14, 2018

तो राजस्थान के मुख्यमंत्री जोधपुर महाराजा होते

26 जनवरी 1952 के प्रथम आम चुनाव का वक्त था | उस समय मतगणना के दौरान चल रहा था | जोधपुर महाराजा हनवंत सिंह जी हवाई जहाज से विभ्भिन जगहों का दौरा कर रहे थे | उस दौरान ही आहोर विधानसभा की ओर अपने हवाई जहाज से जा रहे थे, उसी समय सुमेरपुर-शिवगंज के बीच जवाई नदी में उनका विमान टेलिफोन के तारो से टकराने के कारण दुर्घटनाग्रस्त होकर नीचे गिर गया और विमान में आग लग गई | जिससे महाराजा साहब आग की लपटों में गिर गये और उनका प्राणांत हो गया | कहते हैं हैं कि ये कीसी प्रकार का धोखा था उनके साथ, वरना महाराजा साहब विमान चालन में बडे़ कुशल थे | क्योंकि उससे पहले 30 मार्च 1949 को सरदार पटेल के जयपुर आने के समय उन्होंने ही वायुयान में खराबी आने पर बडी़ कुशलता से नदी के पेटे में उतारा था | महाराज हनवंत सिंह जी की आम जनता में कैसी लोकप्रियता थी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता हैं कि महाराजा साहब ने प्रथम आम चुनाव में मारवाड के 4 संसदीय क्षेत्र की 35 सीटों पर अपने उम्मीदवार खडे कीये और 'मैं थासूं दूर नहीं' का नारा देकर जनता के बीच में आये, जनता ने उनके 35 में से 31 उम्मीदवारों को जीताकर यह विश्वास जताया कि मारवाड की जनता के दिलों में आज भी महाराज साहब राज करते हैं |उस चुनाव में महाराजा साहब स्वयं भी जय नारायण व्यास को हराकर चुने गये | जोधपुर विधानसभा चुनाव में महाराजा को 11,786 मत मिले जबकि जय नारायण व्यास को 3,159 मत ही मिले | इस चुनाव परिणामों ने स्पष्ट कर दिया कि मारवाड़ क्षेत्र में महाराजा हनवंत सिंह जी ही सबसे अधिक जनप्रिय थे | अपने जनप्रिय राजा को खोने से मारवाड़ की जनता बेहद दुखी थी | कहते हैं कि महाराजा के निधनोपरांत जोधपुर सहित पुरे मारवाड में तीन दिन सभी जगहों के बाजार बंद रहे | मारवाड भर में लोगो ने अपने प्रिय के प्रति शोक जताते हुए सिर मुंडवाये और रंगीन साफे की जगह सफेेद व शोकिया रंग के साफे बांधे  | महाराजा के निधन से मारवाड के परंपरागत नेतृृत्व में शुन्यता दिखाई देने लगी | महाराजा हनवंत सिंह के स्वर्गवास के पश्चात उनके पुत्र गज सिंह जी का राजवंश की परंपरा अनुसार 4वर्ष की अवस्था में 12 मई 1952 को राजतिलक हुआ | जो वर्तमान में जोधपुर के पुर्व नरेश हैं | कहा जाता हैं कि यदि महाराजा हनवंत सिंह का उस समय निधन नहीं होता तो राजस्थान के मुख्यमंत्री होते |
--------
🖋 दीप सिंह दूदवा

आज की मकर संक्रांति के मायने

छुट देकर पुंछ वाली पतंग को उडा़ना
हवा नहीं होने पर पहाडी़ पर चढ़ जाना
आखि़र पहाडी़ कीसको पसंद नहीं थी
पहाडी़ का नाम सुनकर ही दर्जनों दोस्त का
पतंग को छुट देने के लिए भागे चले आना
पहाडी़ की चोटी से पतंग को उडाना
तेज हवा में उसका फट जाना
और फटने के बाद थोर के चिपचिपे सफेद दूध से उसे छिपकाना
बहुत आनंददायक होता था
पतंग के टूटने पर दर्जनों दोस्तों का उसके पिछे टूट पड़ना
और चंद सैकंडो़ में पतंग का अपहरण कर ले आना
पतंग के चक्कर में पहाड़ से उनका
फिसलना
गिरना
घुटनों से खुन का झरने की भांति बहना
पर,
कीसी से कीसी का कोई गिला-शिकवा नहीं
सुबह से शाम तक केवल और केवल पहाडी़ पर भागते रहना
बस ! केवल और केवल कुछ बेर और पानी के सहारे
न भुख
न प्यास
 न थकान
 न शिकायत
यही तो था सुनहरा बचपन
आज जब जवानी की इस उम्र में बचपन में झांकते हैं
तो, वे सुनहरे दिन आंसु टपका जाते हैं
दोस्ती के सच्चे मायने ही कुछ ओर थे
स्वार्थ का नामो निशां नहीं था
सब तरफ स्वर्ग ही स्वर्ग था
आज जब लोग कहते हैं
कि आज मकर संक्रांति हैं
तो, अजीब सी हंसी होठो पर आ जाती हैं
और वो हँसी एक सवाल खडा़ कर जाती हैं
क्या यही मकर संक्रांति हैं ?
🖋 दीप सिंह दूदवा


Saturday, January 13, 2018

तब इंसान ही इंसान को खाने को हुआ था मजबुर

1899 का विभत्स काल
" छप्पना रो काळ अर मारवाड री दशा "
------
प्रकृति के प्रकोप को मनुष्य सदियों-सदियों से ही झेलता आया हैं | इसका असर कभी कम तो कभी-कभी क्षेत्र के सम्पुर्ण जनजीवन को मौत के मुंह तक ले जाना वाला रहा हैं |
ऐसा ही प्रकृति का प्रकोप सन् 1899 में हुआ था | जिसे 'छप्पना रो काळ' कहा जाता हैं | आज भी उस काळ में हुई दशा के बारे में सुनाने वाले बुजुर्ग कांपने लगते हैं | क्योकि उनके बाप-दादा जो उस काळ के प्रकोप से येन-केन प्रकारेण बच गये थे, वो उन्हें काळ में हुई दशा के बारे में बताते थे |
इस वर्ष उत्तरी भारत के अन्य प्रांतो में भी घोर अकाल था | सामान्यत: मारवाड के लोग विशेषकर कृषक व पशुपालक अपने परिवार व पशुओ सहित अकाल के समय मालवा, उत्तर प्रदेश व सिंध की ओर चले जाते थे | लेकिन इस वर्ष यहां भी अकाल था, अतः इन्हें निराश होकर वापस लौटना पडा़ | लगभग चौदह लाख मवेशी मर गये, जो यहां के मवेशीयों की आधी संख्या थी | राज्य सरकार ने काफी चारा व धान बाहर से मंगवायां, लेकिन यातायात की पर्याप्त सुविधाएं न होने के कारण काफी मवेशी व मनुष्य मर गये | कहा जाता हैं कि इस काळ का इतना प्रकोप हुआ की झोपडी से लेकर महल के निवासी सडको पर आ गये और दानें-दानें के मोहताज हो गये | ये काल सब से लिए आफत भरा था | राज्य सरकार ने इस वर्ष लगभग सवा छत्तीस लाख खर्च कीये | राज्य ने अकाल के समय तथा उसके बाद के प्रभाव को दूर करने के लिए अंग्रेजी सरकार से तीस लाख रूपये का कर्जा लीया था | राज्य की आर्थिक स्थति काफी गिर गई | मंहगाई लगभग 25 प्रतिशत तक बढ गई थी | जोधपुर शहर में 25 अगस्त, 1899 को अनाज के भाव इस प्रकार हो गये- गेहूं 6सेर , बाजरी 6.5 सेर, जवार 8सेर, मूंग 4 सेर व घास 11 सेर तक हो गई थी | भयंकर अकाल के कारण जोधपुर में लूटखसोट चालू हो गई थी | इस कारण सभी महकमों की तिजोरियां महकमा खास में रखवाई गई थी | और इस तरह मई-जून 1900 में गर्मी की अधिकता के कारण तथा अकाल से कमजोर हुएं लोगो को हैजा का शिकार होना पडा़ | हजारो लोग हैजे के कारण मर गये | इस वर्ष वर्षा भी अधिक हुई व खेतो में फसलें भी अच्छी हुई, लेकिन फसल काटने वाले ही नही थे | इसलिए इस वर्ष भी धान की कमी रही | अकाल, हैजा व मलेरिया के प्रकोप के कारण 1901 की जनगणना के अनुसार यहां की आबादी 19,38,565 रह गई | जबकि 1891 की जनगणना में मारवाड की जनसंख्या 25,28,178 थी | इस प्रकार 1899 व 1900 इन दो वर्षो में यहां की सामाजिक व आर्थिक स्थति अत्यंत दयनीय हो गई थी |
इसी वर्ष जोधपुर महाराजा सरदार सिंह जी ने अपनी जनता को अकाल से राहत व रोजगार देने के लिए बाडमेंर-बालोतरा 60 मील रेल लाईन चालु करवाई गई | इतनी बडी रेल लाइन चालू करने की अनुमती अंग्रेजी सरकार ने पहली बार एक देशी रियासत को दी थी | इस अकाल में जोधपुर महाराजा ने अपनी प्रजा के लिए धान के भंडार खोल दिये थे, लेकिन भयंकर अकाल में कुछ ही समय में चौतरफा त्राही-त्राही मच गई |
इस काळ को लेकर उस समय की दशा को महाकवि ऊमरदान ने इस तरह बताया -
"माणस मुरधरिया माणक सूं मूंगा !
कोडी कोडी़ रा करिया श्रम सूंगा !
डाढी मुंछाला डळियां में डळिया !
रळिया जायोडा़ गळियां में रूळिया !
आफत मोटी ने रैय्यत रोवाई !
अर्थात मरूधर के मनुष्य (मारवाडी) जो मणिक और मुंगा आदि रत्नों के समान महंगे थे, जो एक-एक कोडी़ को मजदुरी करते दिखाई दिये | गर्व भरी डाढी- मुंछों वाले टोकरी उठाते थे | महलों में पैदा होने वाले गलियों में भटक रहे थे | वह छप्पन का समय भारी आफत के साथ आया ! प्रजा रोटी-रोटी को रोती रही |
कहते हैं उस वक्त धान की अत्यंत कमी के कारण नीम व खेजडी की साल तक खाने को मजबुरी आ पडी थी | इस बारे में मैंने गांव के बुजुर्गों से जानकारी ली, तो बताया की उनके पुर्व के बुजुर्ग जो उस काळ को चीर कर बाहर निकले थे | वो बताते थे की "छप्पने" के समय लोगो के पास पैसे व सोने चांदी की मुहरे भी थी, लेकिन वो भी इधर-उधर लेकर घुमते रहे | धान की इतनी कमी थी कि स्वर्ण मुहरो के बदले भी कोई धान देने को तैयार नही था | क्योकि जिनके पास धान था वो खुद चिंतित थे, कि न जाने काळ कीतना लंबा चलेगा |
-------------------
छप्पनियां काळ के बारे में बुजुर्गों से सुने अनुभव शेयर करते हुए मंगलाराम बिश्नोई बताते हैं कि -
" लोग अनाज की पोटली हांडी में घुमाकर उसे 'अन्नवाणी' बना देते और उस पानी में खेजडी के 'छोडा ' (छाल) उबाल कर खाते |
लोग इतने कमजोर पड गये थे कि घरों में झोंपडों में अंदर 'वळों" से रस्सी लटकाये रखते और उसे पकड कर ही खडे हो पाते थे |
एक वीभत्स किस्सा भी है-
" एक माँ ने कैरडे के मळे में अपनी संतान को जन्म देकर खुद ही खा लिया |"
और मंगलाराम जी कहते हैं कि मारवाड की मानवता को झकझोर कर रखने वाली इस छप्पनिया की विभीषिका के बारे में किसी साहित्यकार, कवि, ख्यात लेखक की कलम नहीं चली, न ही वाणी में सरस्वती विराजी |
--------------------------------------------
आज जब हम प्रकृति के छोटे-छोटे प्रकोप से डर व सहम जाते हैं | तब बुजुर्गो से सुनते आये उस छप्पने काळ की याद अनायास ही आ जाती हैं | क्या दौर रहा होगा ? जब सब तरफ त्राही-त्राही मची होगी |
खैर भगवान करे ये काळ व ये आपदाये कभी ना आये |
🖋 दीप सिंह दूदवा

Friday, January 12, 2018

गोडावण की भांति लुप्त होते गांव के जिम्मेदार लोग

उन दिनों की बात हैं | जब न तो गांव में और ना ही गांव के आस-पास में इतने टेंट हाउस हुआ करते थे |
गांव में कोई भी पारिवारिक कार्यक्रम होता, तो गांव के अन्दर से ही पुरा सामान जुटाया जाता था |
चाहे खाटळे, बिस्तर, तकियां, खाट-पछेडे, दरी, जाजम, दूध, दही, ऊंट-गाडे़, जीप तक | बहुत ही कम सामान शहर से लाना पड़ता था | उन दिनों लोगो में सामाजिकता व उधार का भाव था | लोगों में आज इनकी तो कल अपनी बारी के जिम्मेदारी का अहसास था |
बारात आती थी तो पुरा का पुरा गांव पांव पर खडा़ रहता था | पुरा गांव ही एक घर समझा जाता था | बुजुर्ग व गांव के जिम्मेदार लोग तब तक बिना खाये ही मेहनानवाजी में खडे़ रहते थे, जब तक गांव की बच्ची के फेरे खाने की रस्म अदायगी नहीं हो जाती थी | या युं कहे कि बेटी के बाप से ज्यादा गांव के जिम्मेदार लोगों को चिंता हुआ करती थी | बेटी का बाप निश्चिंत हुआ करता था, गांव के लोगो पर उसे पुरा भरोसा होता था |
ऐसे लगता था जैसे शादी कोई शादी न होकर गांव में सामाजिक एकता का मेला हों |
समय ने करवट बदलीं रेडीमेड का जमाना आया | टेंट आया, टेंट के साथ-साथ वेटर प्रथा भी आई |
आज समय इतना बदला कि अब बारात आने की मामुली रस्म अदायगी के बाद बारातियों व वेटर का ही आमना सामना होता हैं | बाराती अपनी मस्ती में मस्त हैं, घराती अपनी मस्ती में मस्त, तो गांव वाले अपनी में मस्ती में मस्त हैं | न कोई जिम्मेदारी का अहसास न सामाजिकता का भाव  बस केवल खडे़-खडे़ दर्शकों की भांति सब मनोरंजन करते नजर आते हैं | आज सब जगह पैसों का बोलबाला बना हुआ हैं |
न बाराती, बाराती को पहचानता हैं ..और न ही घराती, घराती को |
सब अपनी मस्ती में मस्त हैं | बारात आने से लेकर जाने तक बेटी के बाप की नींद हराम हो जाती हैं, आज डर हैं कि कही विवाह बिगड़ न जाय | अब जिम्मेदार लोगो की संख्या राज्य पक्षी 'गोडावण' की भांति लुप्त होती जा रही हैं | आज इस तरह सामाजिक मुल्यों को गिरते देखकर लगता हैं कि आने वाला समय सामाजिक एकता के भाव से और भी भयानक होगा व चिंतनीय होगा |
खैर! समय की गति पर किसका नियंत्रण हैं |
🖋 दीप सिंह दूदवा

Thursday, January 11, 2018

'छठी कक्षा में सीखा 'ए' फोर 'एप्पल' और बना देश का आईआईटी टॉपर'


  • छठी कक्षा से जिसने 'ए' फोर 'एप्पल' पढना सीखा हो, सरकारी स्कुल में अपने नींव का निर्माण किया हो,घर में घरेलु लाईट कनेक्शन व आधुनिक मनोरंजन के साधन के नाम पर टीवी तक न हो और वो जिस जिले का रहवासी हो वो जिला शिक्षा क्षेत्र में अत्यंत पिछडा व 'डार्क जॉन' घोषित हो यदि उस जिले, गावं और उस घर का युवा देश की सबसे प्रतिष्ठित आईआईटी परीक्षा टॉप कर देवे तो क्या खुशी होती होगी .....?
  • -----
  • हां इस खुशी को हम जालोर (राजस्थान)  वासियों ने महसूस कीया वर्ष 2002 के IIT-JEE 2002 के परिणाम के वक्त .....
  • हां पहली बार कीसी घर के व्यक्ति ने अपने घर (जालोर) की पहचान देशभर में करवाई थी | इससे पहले तक जालोर 'सरदार बुटा सिंह का जालोर' (पुर्व गृह मंत्री, भारत सरकार का संसदीय क्षेत्र) के नाम से जाना जाता रहा था |
  • ------
  • वर्ष 2002 में जालोर जिले के सायला तहसील के भुण्डवा गांव (मेरे गांव दूदवा से 3 km दूर)  के डूंगराराम चौधरी ने इस परीक्षा को टॉप उत्तीर्ण कर न केवल मेट्रो सीटी की अंग्रेजी पीढीयों को सोचने के लिए विवश कीया अपितु जालोर की हजारों प्रतिभाओ, जो पांचवी पास कर  देसावर (धनोपार्जन के लिए प्रदेश कमाने जाना) चली जाती थी | उन्हें शिक्षा के क्षेत्र के महत्व को बताकर पलायन से रोका |
  •  एक सफलता ने हजारों युवाओ का मार्ग प्रशस्त किया | उस सफलता के बाद आज जालोर न केवल मेडिकल अपितु आईटी व प्रशासनिक क्षेत्र में भी झंडे गाड़ रहा हैं | आज इसका पुरा श्रेय डूंगरा राम जी की सफलता को जाता हैं |
  • -------
  • जो अनपढ लोग (शिक्षा के महत्व का जिन्हें पता नही था) पढ़ने वालो पर कभी ताने कसा करते थे कि 'एडो पसे पढने काई कलेक्टर बण जाई' उनकी भी डूंगराराम जी की सफलता ने बोलती बंद कर दी | उनमें भी अपनी संतानो को पढाने की एक होड़ मच गई | आज 2002 के बाद जालोर जिला शिक्षा के क्षेत्र में नित नये आयाम स्थापित कर रहा हैं | डूंगरा राम जी के बडें भाई डॉ. दरगाराम जी भी प्रतिभा के धनी रहे हैं | 
  • -------------
  • -------------
  • एक  किस्सा -
  • करीब तीन-साढे तीन वर्ष पहले की बात हैं | पंचायत समिति हॉल में सरपंचो व ग्रामसेवकों की कार्यशाला चल रही थी | कार्यशाला "खुले से शौच मुक्त' को लेकर आयोजित थी | इस मौके जिला परिषद के मुख्य कार्यकारी (सीईओ) जवाहर चौधरी एवं प्रधान वगैरह भी मौजुद थे | लगभग दो घंटे की कार्यशाला के बाद सीईओ साहब ने सरपंचो की तरफ नजर डाली और घूंघट में बैठी एक महिला सरपंच से पुछा, 'माझीया कोई बात थोडी-घणी भी समझ आई की युंही दो घंटा हरी रो नोम लियो ?'
  • तब पास में बैठे प्रधान जी ने सीईओ साहब से कहा कि, 'साहब ये भुण्डवा सरपंच हैं जो 2002 में आईआईटी टॉप कीया था डूंगरा राम जी ने उनकी माता जी हैं|'
  • इतना सुनते ही सीईओ साहब एकदम से खडे़ हो गये और उनकी माता जी को नमन करते हुए कहा कि, 'मुझे बडा़ गर्व हैं कि मैं उस आईआईटी टॉपर की माता जी के दर्शन कर पाया|' और आगे सीईओ साहब ने कहा कि जब 2002 के आईआईटी का रिजल्ट घोषित हुआ था, तब मैं रिजल्ट की पहली सुबह बाडमेंर के सुदुर गांव (पाकिस्ता सीमा पर) में था और अखबार के माध्यम से जानकारी मिली | मैं एक घंटे तक उस खबर को दसो बार पढते रहा, कि जालोर जिले के छोटे से गांव का व्यक्ति भी आईआईटी टॉप कर सकता हैं क्या.......? 
  • वो बताते हैं कि मुझे उस खबर पर नो बार तो विश्वास ही नही हुआ, फिर दसवी बार उस खबर को पढकर मान ही लिया कि इस संसार में असंभव कुछ भी नहीं हैं |
  • -----------
  • -----------
  • दूसरा किस्सा 
  • सुधांशु जी की फेसबुक वॉल से ..
  • --
  • साल 2002 । जून की गर्मी से उबलता राजस्थान । कोटा शहर में भी बहुत उथल-पुथल थी । उथल पुथल इसलिए क्योंकि IIT-JEE का रिजल्ट घोषित होने था । कोटा जो मेडिकल और इंजीनियरिंग की तैयारी के लिए मशहूर एजुकेशन हब बन चुका था इस बार भी अपने यंहा से ही टॉपर की बाट जोह रहा था ।

  • दोपहर की गर्मी में बंसल क्लासेज ( IIT कोचिंग के लिए जाना पहचान नाम ) में सभी बेसब्री से IIT-JEE 2002 के परिणाम का इंतजार कर रहे थे । सभी छात्र एवं शिक्षक टकटकी लगाकर घड़ी की तरफ देख रहे थे । प्रार्थनाओं और ईश्वर को याद करने का दौर शुरू हो चुका था ।

  • शाम के 5 बजते ही परिणाम घोषित हुआ और बंसल क्लासेज ने एक बार फिर सफलता के नए आयाम स्थापित किये और लगभग 2000 के आसपास विद्यार्थी परीक्षा पास कर चुके थे । बंसल क्लासेज को पूरी उम्मीद थी कि इस बार भी टॉपर उनके यही से निकलेगा लेकिन टॉपर का नाम देख बंसल क्लासेस के मैनेजमेंट और स्टूडेंट्स में निराशा छा गयी । IIT-JEE 2002 की इस बार की सूची में नम्बर 1 यानी टॉपर की जगह पर नाम था डूंगरा राम चौधरी का । डूंगराराम चौधरी निवासी जालोर,राजस्थान । 

  • उस समय टेक्नोलॉजी और तकनीक का इतना प्रभाव नहीं था कि डेटाबेस से एक सर्च से सारा रिकॉर्ड खंगाला जा सके । बंसल क्लासेज में अपनी एक व्यवस्था है । सबसे इंटेलीजेंट स्टूडेंट्स को वे अपने प्रीमियम बैच में रखते है, जिसमे विशेषज्ञ उन स्टूडेंट्स पर विशेष मेहनत करते है ।यह प्रीमियम बैच ही मेरिट लिस्ट में ऊपर के स्थान पर कब्जा करते है । बाकी सामान्य और ग्रामीण परिवेश से आनेवालों के लिए जनरल बैच बनते है जिन पर संस्थान ज्यादा ध्यान नही देता । वे सिर्फ धन उपलब्ध करवाने वाले होते है, उनसे विशेष उम्मीद भी नही होती ।  तो बंसल क्लासेस के मैनेजमेंट ने उस दिन अपने सभी टॉपर बैच में पड़ताल की लेकिन यह नाम नहीं मिला तो उन्होंने मान लिया कि इस बार टॉपर कोई और जगह से बना । थोड़ी देर बाद पता चला कि चोटी के अन्य कोचिंग संस्थानों में भी इस टॉपर का नाम नही है ।चारो तरफ अफवाहों का दौर गर्म हो गया क्योंकि अगर टॉपर बंसल क्लासेज या करियर पॉइंट और रेजोनेंस से नहीं बना तो फिर कहाँ से बना ?

  • रिजल्ट के 2 घंटे बाद शाम को 7 बजे के आसपास एक 18 वर्ष का बेहद सामान्य से दिखने वाला दुबला पतला चश्मा लगाया विद्यार्थी बंसल क्लासेज के डायरेक्टर रूम में जाता है और पांव छूकर कहता है कि "सर मेने IIT टॉप कर लिया है ।"

  • उस वक्त तक उस विद्यार्थी को उसके बैच के कुछ साथियों के अलावा कोई नहीं जानता था । डाइरेक्टर साहब अवाक रह जाते है । पूरा मैनेजमेंट और स्टाफ हैरान हो जाता है कि जिसे हम जानते तक नही , उस सामान्य स्टूडेंट्स की भीड़ में से यह कौन टॉपर आ गया? 

  • तुरंत पेपर्स खंगाले जाते है । पता चलता है कि यह चौधरी साहब पश्चिमी राजास्थान में मारवाड़ के सुदूर जिले जालोर से बंसल क्लासेस में पढ़ने आये थे ।अंग्रेजी में कमजोर होने के कारण बंसल क्लासेस की तकनीकी कमेटी उनकी प्रतिभा को पहचान नही पाई और उन्हें प्रीमियम बैच में स्थान नही मिल पाया । लेकिन अब रिजल्ट की शाम वो ग्रामीण हिंदी माध्यम का लड़का एक स्टार सेलिब्रिटी बन चुका था। अगले दिन हर न्यूज़ पेपर में उसकी फोटो छपी और उसके नाम व फोटो के बैनर/फलेक्सेस पूरे कोटा शहर में छा चुके थे । बंसल क्लासेज ने एक बार फिर IIT-JEE की टॉप रैंक कब्जे में लेकर अपनी उपयोगिता साबित कर दी थी । डूंगरा राम चौधरी अब बंसल क्लासेस की शान बन चुका था ।

  • अब डूंगराराम की कहानी हर कोई जानना चाह रहा था ।राजस्थान के जालोर जिले के एक गांव से आने वाले डूंगरा राम चौधरी ने अपनी मेहनत और लगन से देश के प्रतिष्ठित एग्जाम में टॉप किया। जालोर के किसान परिवार से आने वाले डूंगरा राम ने शुरुआती पढाई अपने गांव से करने के बाद जालोर शहर की तरफ आगे की पढाई के लिए रुख किया । 12 वी पास करने के बाद IIT-JEE की तैयारी के लिए 1 साल का गैप लिया और पहुंच गए कोटा अपनी किस्मत आजमाने । एक सामान्य विद्यार्थी के रूप में साल भर पढाई करने वाले डूंगरा राम ने अपनी प्रतिभा का लोहा टॉपर बनकर मनवा लिया ।

  • IIT-JEE में टॉप करने के बाद डूंगरा राम ने IIT कानपुर में कंप्यूटर इंजीनियरिंग में दाखिला लिया और वहाँ पर भी अपने बैच के टॉपर रहे । हिंदी माध्यम से पढ़कर IIT टॉप करके IIT कानपूर जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में दाखिला लेना डूंगरा राम के लिए किसी सपने के सच होने जैसा साबित हुआ ।

  • इंजीनियरिंग के बाद डूंगरा राम ने AirTight Netorks नाम की कंपनी में अपना करियर शुरू किया और लगभग 2 वर्ष वहां काम करने के बाद Oracle में सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में पिछले 11 वर्ष से काम कर रहे है । Oracle में वो आधुनिक तकनीक जैसे क्लाउड कंप्यूटिंग और क्लस्टरिंग जैसे प्लेटफार्म पर काम कर रहे है । वो अब तक 2 रिसर्च पेपर एवं एक पेटेंट पब्लिश कर चुके है और वर्तमान में कैलिफोर्निया में अपने परिवार के साथ रह रहे है ।

  • जालोर के छोटे से गांव से कैलिफोर्निया तक का सफर डूंगरा राम के लिए बहुत ही रोमांचक और संघर्षपूर्ण रहा है लेकिन डूंगरा राम ने अपनी लगन और मेहनत से हर बड़े लक्ष्य और मुसीबत को अपने सामने बौना साबित कर दिया है ।

  • आज 15 साल बाद बंसल क्लासेस भी इस अनुपम उपलब्धि पर अपने यंहा स्कालरशिप प्रोग्राम उनके नाम पर चलाती है । ध्यान रखिये प्रतिभा को कान्वेंट, अंग्रेजी या बड़े शहर की दरकार नही होती । अपने हुनर पर भरोसा रखें । सफलता अवश्य मिलेगी ।
  • -------
  • फोटो - 1. 2002 के आईआईटी टॉपर डूंगर राम जी अपने पिताश्री अजाराम जी चौधरी के साथ उस समय |

  • फोटो 2. डूंगर राम जी के बडे़ भाई डॉ. दरगाराम चौधरी अपने फार्म पर | आज भी इतनी सफलता के बाद अपनी जडो़ से जुडे़ हुए हैं एवं पुरा ही परिवार 'सादा जीवन उच्च विचार' का जीना जीता हैं|
  • -----------
  • -----------
  • 12 जनवरी (युवा दिवस) पर विशेष -
  • 🖋 दीप सिंह दूदवा

Wednesday, January 10, 2018

'धापू और कीरता का पवित्र प्रेम'

धापू आज बडी़ खुश थी .... आखिर हो भी क्यों न | न जाने कीतने एकासणे किये थे, अपने सपनों के राजकुमार को पाने के लिए | वो जो आज उससे मिलने जो आया था |

चार वर्ष की उम्र में ही मां सदा के लिए धापू को छोडकर जा चुकी थी | दुनियां में रिश्तेदार के नाम पर केवल बापू ही था | बचपन बडी़ मुश्किल से गुजरा .. बापू ने ही मां व बाप की भुमिका निभाई |
खाना बनाने से लेकर कपडे़ धोने,झाडू निकालने, कच्चे घर में गार निपने से लेकर बकरीयों को दाना-चुगा देने तक का काम बापू ही करते थे | घर में दो वक्त की रोटी का सही जुगाड़ न होते हुए
भी धापू का बापू हमेशा धापू को ऊंचे ख्वाब दिखाता था |

जब धापू ठीक से बोलने व चलने लगी तो बापू ने गांव के ही सरकारी स्कुल में धापू का नाम लिखवा दिया था | धापू पढने में बडी़ तेज थी | धापू जब स्कुल जाती तो उसका बापू गांव में ही बळीतें (लकडियां) फाडने का काम करता था | स्कुल की छुट्टी होने से कुछ समय पहले ही घर लौट आता था, ताकि इकलौती बेटी को अकेलापन महसुस न हो |

समय गुजरने के बाद अब धापू नवमी कक्षा में आ चुकी थी | अब तक वो बडी़ समझदार हो चुकी थी | घर का सारा काम निपटा लेती थी | जैसे-जैसे धापू की उम्र बढ़ रही थी वैसे-वैसे बापू की चिंता भी दिनों-दिन बढने लगी थी |

धापू कक्षा में हमेशा प्रथम तो कीरता द्वितीय स्थान पर आता था | कीरता उसकी कक्षा में पढने वाला सीधा-सादा लडका था | कीरता भी आठ साल की उम्र में अपनी मां को खो चुका था | धापू और कीरता में हमेशा स्वच्छ प्रतिस्पर्धा होती थी, चाहे परीक्षा हो या निबंध प्रतियोगिता, बाल सभा हो या भाषण प्रतियोगिता हमेशा दोनों का नाम ही अव्वल पर होता था | कई बार धापू की सहेलियां धापू से मजाक कर कहती थी, 'कि तुम दोनों की तो जोडी़ बन गई हैं .. जहां धापू वहां कीरता और जहां कीरता वहां धापू |' ये सुनकर धापू का चेहरा शरम के मारे लाल पीला हो जाता था | तो दूसरी तरफ कीरता के मित्र कीरता को चिढातें हुए हुए कहते थे, कि तुम्हारी तो जोडी़ नम्बर वन हैं ..भगवान ने ही बनाकर भेजी हैं | इस मजाक से धापू व कीरता में असहजता होने लगी थी |

आज रविवार का दिन था | धापू का बापू अपनी झुपडी़ के उपर देने हेतु सणीये लेने खेत में गया हुआ था | धापू अकेली ही घर थी | उसने खाना बनाया और बर्तन धोये, बर्तन धोने के बाद वह झुपडी पर पुराने काले पड़ चुके सणीयों को एक-एक कर नीचे गिराने लगी | अभी पांच-सात सणीये ही नीचे गिराये होंगे, कि उसका सहपाठी कीरता उसके घर आ गया | पहले तो वो एकदम हड़बडा़ गई क्योंकि कीरता पहली बार उसके घर आया था | लेकिन बाद में संभल गई | क्योंकि कीरता समझदार व होनहार नेक दिल लड़का था | वह उसको देखकर उसके स्वागत में हल्की सी मुस्कराई, तो कीरता भी हल्का सा मुस्कराया |

धापू ने कीरता से आने का कारण पुछा, तब कीरता ने बताया की वह उसके बापू को बुलाने आया हैं | दो दिन बाद रामदेवजी की जागरण हैं, घर पर बळीते (लकडियां) फाडने हैं | तब धापू ने बताया की उसका बापू खेत में सणीये लेने गया हुआ हैं | ऐसा कहकर वह कीरते को पानी पीलाने के लिए नीचे उतरने लगी | झोपडे़ से नीचे उतरते देख कीरते ने उतरने का मना कर दिया, और कहा कि, 'सणीये नीचे डालते थक गई होगी इसलिए उतरने व वापिस चढने की परेशानी मत देख |' और ऐसा कहकर उसने स्वयं लोटा लेकर खुद ही पानी पी लीया, और खुद पानी पीने के बाद वापिस लोटा भरकर धापू के सामने कर दिया | अब धापू शरम के मारे पसीना-पसीना हो गई | कीरते के हाथ से लेकर उसने पानी पीने का प्रयत्न कीया, पर पानी गले से नीचे नही उतर रहा था | जैसे-तैसे आधा लोटा पानी पीया और लोटा कीरते की तरफ बढाया, तो दोनों की अंगुली एक दुसरे के टच हो गई | अंगुली के आपस में टच होने से धापू के शरीर में अजीब सा करंट दौड गया | वो कुछ समझ पाती उससे पहले ही कीरते की आवाज ने उसका ध्यान भंग कर दिया | कीरता बोला, 'आने दो एक-एक सणीया, तुम उपर से दो, मैं इसे नीचे जमाता हूं |' धापू कुछ कह पाती उससे पहले ही कीरते ने सणीया लेने के लिए हाथ आगे बढा दिया |

अब धापू एक-एक करके सणीया नीचे कीरते को देने लगी | कुछ देर तो दोनों मौन रहे, पर थोडी देर बाद कीरते ने मौन तोडते हुए पुछा- "धापू तेरी मां अभी तक नजर नहीं आई?" इतना सुनते ही धापू के आंख से एक आंसू छलक आया | अब कीरता पुरी कहानी समझ चुका था | अब तक सारे सणीये भी झुपडी़ से नीचे आ चुके थे | कीरता ने धापू को नीचे आने का ईशारा कीया, पर अब धापू के लिए उतरना मुश्किल था | क्योंकि सभी वळे (झोपडे़ की लकडीयां) भी नीचे फेंक दिये जा चुके थे |

कीरते ने धापू की वस्तु-स्थति भांपते हुए उसे सहारा देने के उद्देश्य से हाथ उपर कीये पहले तो धापू शरमा गई, पर दुसरा कोई सहारा न देखते हुए कीरते के दोनों उपर कीये हाथों के सहारे नीचे कुदी | कुदते ही कीरते ने अपने शरीर का बैलेंस बनाते हुए उसे कैच कर दिया | अब धापू कीरते के बाहों में थी | कीरता ने उसे संभालते हुए नीचे लिया |

अब कीरता घर जाने के लिए जैसे ही रवाना हुआ, तो धापू ने खाना खाकर जाने को कहा | कीरते ने धापू को अकेली देख खाना खाना उचित नहीं समझा, पर धापू के खुद की सोगन डालने पर कीरता रूक गया | आखिर रूकता भी क्युं नहीं ! कक्षा की सबसे होशियार लडकी अपने हाथो का बना खाना जो खिला रही थी | दोनों ने हाथ धोये व खाने के लिए दोनों एक ही दरी पर पास में ही बैठ गये |

आज धापू ने अपने हाथ से पतले-पतले सोगरे व सनवेळें की सब्जी बनाई थी | धापू ने कीरता को वाटके में सोगरा व सोगरे के उपर सनवेळें की सब्जी रखने के बाद, घीलोटी से टीपरी भरकर घी डालने लगी | इतने में कीरते ने धापू का हाथ पकड़ लीया और घी एक शर्त पर ही लेने की बात कहने लगा | धापू भी उसकी शर्त को मानने को तैयार हो गई, क्योंकि वह अपने साथी को कोरा कैसे खाने देती | तब कीरता ने शर्त रखी कि वह घी उसी शर्तानुसार सोगरे पर लेगा, यदि वह खाना उसके साथ ही खायेगी | अब धापू धर्म-संकट में फंस चुकी थी, न तो ना कर सकती थी और ना ही एकदम से हां |  आखिर धापू ने घीलोटी पकडकर टीपरी से सोगरे पर घी डालने लगी, अब कीरता धापू की मौन स्वीकृति को समझ चुका था | कीरते ने पांचो अंगुली सोगरे के बीच पडे़ सनवेळें व घी में डुबोते हुए एक छोटा अच्छा कौर तैयार कीया और धापू के मुंह की तरफ बढा दिया | अब धापू की बारी थी उसने भी अपने मखमल से हाथों से छोटा कौर बनाया और कीरते की तरफ बढाने को ही थी, कि धापू का हाथ धूजने लगा | कीरता समझ गया, उसने अपने हाथ धापू की तरफ बढाते हुए धापू के दोनों हाथ पकड़ कर उसके मखमली हाथ का कौर अपने मुंह तक ले गया | अब धापू का चेहरा शरम के मारे नीचे झुक गया |
अब दोनों एक दुसरे को कौर देने लगे और एक दुसरे की आंख से आंख मिलाने लगे | इतने में अचानक गोगर बिल्लें ने थाली में जोर से उनके हाथ पर पंजा मार दिया | जिससे दोनों का अचानक से ध्यान भंग हुआ और हडबडाहट से उछल पडे़ | देखा तो अब तक वे पुरा सोगरा कभी का खा चुके थे | वे केवल आंख में आंख डाले, दोनों हाथ थाली में डाले लंबे समय से बैठे थे | गोगर बिल्ले के खलल ने उन्हें उठकर हाथ धोने को मजबुर कर दिया |

अब धापू एटवाडी प्लेट लिए एक कोने में खडी थी और कीरता घूणीयें मेंसे पानी लेकर हाथ धो रहा था, कि अचानक .... "ऐ धापूडी..ऐ धापूडी" की आवाज सुनाई पडी़ |
धापूडी - "जी ... बापूजी..." कहकर बापू के सामने दौड़ पडी़, और बापू के माथे पर से सणीये के भारे को नीचे उतारा |

प्यासे बापू ने धापू से पानी मांगा | धापू ठाडी़ मटकी से बापू के लिए
पानी लेकऱ गई, तो कीरता भी धापू के पिछे-पिछे गया और बापू के धोक लगा दी |
बापू ने उस चेहरे को पहचानने की कोशिश के रूप में अपनी आंखो पर जोर डालते हुए उसकी तरफ देखा... पर चेहरा अनजाना सा नजर आया | इस बीच धापू बिच में ही बोल पडी- "बापू ओ कीरतो हैं ... म्हारें कक्षा में पढे हैं... हर साल कक्षा में सैंकड आवे हैं... भूरजी रो हैं |" भूरजी का नाम सुनते ही बापू ने गौर से उसकी तरफ टकटकी लगाकर देखा.. फिर धापू की तरफ ... दुबारा उसकी तरफ ... फिर धापू की तरफ .... |

धापू और कीरता भी विचार में पड़ गये | आखिर माजरा क्या हैं ....... ?

बापू की आंखो में आज आशा की एक कीरण जग चुकी थी |
बापू  ने कीरता को आने का कारण पुछा, तो कीरता ने बापू  को बताया की, 'दो दिन बाद घर में जागरण हैं इसलिए आपको बळीतें फाडने का कहने के लिए आया था |'

बापू में एकबार फिर उत्साह की ज्योत जगती नजर आई | बापू कीरते को बोले- " जरूर आऊंगा ....  आज तो जरूर आऊंगा ... |

जवाब सुनकर कीरता घर के लिए चल पडा़ | गुआडी के अदबिच जाकर कीरते ने पिछे नजर दौडाई, तो देखा कि बापू उसे टकटकी लगाये देख रहे है, तो उसके पिछे धापू भी मंद-मंद मुस्करा रही हैं |

बापू ने कुल्हाडी़ उठाई और पास पडे़ छीण के टूकडे पर कुल्हाडी़ को रगड़कर धार करने लगा | धार करने के बाद धापू को आवाज लगाई ... ऐ  धापू ..!

बापू की आवाज सुनकर धापू दौडकर नजदीक आई | बापू ने उसके चेहरे को गौर से देखा और हल्की सी मुस्कान बिखेर दी | और कुल्हाडी उठाकर चल पडा़ भूरजी के घर की तरफ |

अब भूरजी के घर पहुंचने पर बापू की नजर सबसे पहले कीरता पर पडी़ | कीरता दो पत्थरों के बीच तख्ता रखकर उस पर बैठे-बैठे किताब के पन्ने पलट रहा था |

कीरता ने धापू के बापू को घर आये देखकर राम-राम कर धोक लगाई और थणी पर लटक रही बगती से ठंडे पानी का लोटा भरकर ले आया |

बापू की नजर कभी लोटे पर तो कभी कीरते पर अटक रही थी | इतने में अचानक "राम-राम ..." की आवाज सुनाई पडी. | पिछे मूडकर देखा तो हाथ में गेडी़ लिए भूरजी खडे थे |

भूरजी ने बापू से गर्म  जोशी से हाथ मिलाया | पर आज धापू का बापू थोडा़ नर्वस था ... |

भूरजी ने अमल की मनुहार करते हुए धापू के बापू के नर्वस चेहरे को पढ लिया था | भूरजी ने अमल की मनुहार करते हुए धापू के बापू को माडेही पाव तौला अमल गटका दिया | अमल देने के बाद धापू के बापू से भूरजी ने अपनी चिंता का कारण पुछा | तो बापू ने चेहरे पर मामूली सी चिंता मिश्रित मुस्कराहट लाकर कारण टालने का प्रयास कीया |
पर भूरजी के जोर देने पर बापू ने मन को भारी करते हुए, नजर झुकाकर कहा कि, 'घर में बडी़ हो रही लडकी से बडी़ बाप की चिंता क्या हो सकती हैं?'

इतना सुनते ही भूरजी आत्मविश्वास से लबालब होकर बोले "अरे ! समधी जी ये चिंता मुझ पर छोड़ दो" इतना सुनते ही बापू पागल की भांति भूरजी के पांवो में गिरने लगे |
यह देख भूरजी ने बापू को उठाकर गले लगा दिया और बोले कि, 'आज बळीतें फाडनें का बुलावा तो एक मात्र बहाना था !  मैंने "पिछली स्वतंत्रता दिवस पर धापू का धारा प्रवाह भाषण सुना था, तब से धापू को बिंदणी बनाने की दिल में ठान ली थी .."

 समधी जी तुम यदि आज तैयार नहीं होते, तो भी मैं येनकेन प्रकारेण यह रिश्ता करने की कोशिश जरूर करता |
इतना सुनते ही बापू का सीना गर्व से फुल गया |

बापू ने अपने जेब से एक रूपया निकालकर होने वाले जवाई (कीरता) को पकडा़ दिया |
हाथ में रूपया देख कीरता भी मन ही मन धापू के बारे में सोचकर फुले नही समां रहा था |

अब भूरजी ने धापू के बापू को घुड-धनिया खिलाकर (नये समधी) को रवाना कीया |

बापू रास्तें में चलते-चलते फुले नही समां रहा था | जैसे ही घर पहूंचा, "धापू...ऐ..धापू ..." चिल्लानें लगा | इस बार बापू की आवाज में पुर्ण संतोष के भाव थे | धापू भागती हूई आई, धापू को देख बापू उसके गले लिपट गया | जैसे बहुप्रतिक्षित स्वप्न आज पुरा हूआ हो | धापू भी मन ही मन कीरते के बारे में सोचकर फुले नहीं समां रही थी |

आज धापू और कीरता यह सोच कर खुश हुए जा रहे थे, कि चलो, आज सहपाठीयों की दुआओं को आखिर पंख तो लग ही गये |
------------
🖋 दीप सिंह दूदवा

Tuesday, January 9, 2018

'आज भी कायम हैं गांव री अपणायत'

फोन आया कल जागरण की बैठक हैं, आपको जरूर आना हैं | 'बैठक' का नाम सुनकर आनंद आ गया | 'जागरण व बैठक' मेरे लिए बडा कर्णप्रिय शब्द था | मुझे समय मिलने पर जागरण व बैठक में जाने की हमेशा उतावळ व उत्सुकता रहती थी | क्योकि वहां जाने पर मुझे ग्रामीण संस्कृति, अपणायत व निस्वार्थता के जीवन दर्शन को करीब से महसुस करने का अवसर प्राप्त होता था | वैसे आज रविवार भी था | दस बजे ही तैयार होकर बैठक के लिए रवाना हो गया | जैसे ही वहां पहुंचा, तो जगह-जगह नीम के नीचे ट्रैक्टर व जीपे खडी मिली | मैंने भी एक तरफ अपनी गाडी खडी की, उतर कर बैठक में पहुंचा | वहां सभी ने हाथ जोडकर मुस्कराते हुए मेरा सहर्ष अभिवादन कीया | अभी जाकर बैठा ही था, कि हीमतो बा ने एक लडके को आवाज लगाते हुए कहा- " ए छोरा बगना वाळू का भाळे पोणी रो लोटो लाव" और लडका भागते हुए पानी का लोटा ले आया | इतने में गमनो बा आगे से मनुहार करके हुए सीधे मेरे पास आ गये, और अमल आगे करते हुए कहा- "लो सा आज तो आपने अलम लेणोइज पडेई" और अमल की कोतली मेरे सामने बढा दी | मैने भी हँसते हुए बा को यह कहते हुए मनवार टाळ दी, कि "अजे अमल लेवा में ओपोरे टेम हैं|" तब बा ने भोळावण देते हुए कहा कि "मोरे तो मनवार रो फर्ज हैं पर आप नशा-पोणी ती थोडा अलगाइज रेरावजों |"
इतने में बातो ही बतो में चाय आ गई | अब मैं चाय की चुस्की के साथ आस-पास बैठे बुजुर्गो की बातो में हां में हां मिलाते हुए बातचीत भी कर रहा था | बैठक का दृश्य हमेशा की तरह अजीब था | एक तरफ डोडे गळाये जा रहे हैं, तो दुसरी तरफ अमली एक दुसरे को अमल की मनवार कर रहे हैं | वही तीसरी तरफ चिलम को एक-एक करके कस लेते हुए आगे बढा रहे हैं | साथ-साथ में कभी खेती तो कभी बारिश, कभी राजनीति, तो कभी स्कुली बच्चों के एडमीशन को लेकर भी चर्चा का दौर जारी हैं | बातों ही बातों में सब मशगुल थे | बैठक में कभी हंसी-ठिठोली तो कभी गम्भीर बातें भी निकल रही थी | हीमतो बा भी मेरे पास आकर बैठ गये, और हालचाल पुछने लगे | मैं भी उनको जवाब देता रहा | पास बैठे बुढिये भी मेरी बात को गंभीरता से सुनने लगे, कि कोई गंभीर बात सुनने को मिले | पर सामान्य बात चलती रही | इतने में पास से गुजर रहे एक छोटे बच्चे (पांच वर्ष) को हिमतो बा ने कहा- "ए ठोकीरा अटे आव अळगो-अळगो का धोडे ए देख शशमों वाळा डोक्टरसा आईया हैं, पाय नी आईयो तो सुई पी देई, नीतर एक कविता बोल पी |" बच्चे ने भी मेरी तरफ घुर कर देखा, और जोर जोर से चिल्लाने लगा - "मशळी जळ की रोणी हैं, जीवण उसका पोणी हैं .. हाथ लगावो तो डर जायेगी, बार निकाळो तो मर जायेगी|" इतना सुनाकर वहां से भाग गया | बुढिये उस बच्चे की कविता सुनकर आनंद विभोर हो गये, और उनको बडा़ मजा आया | एक मीनट की कविता के बाद चिलम का कस ले रहे समेळो बा ने भविष्यवाणी की - " ओ सोरो हुशियार हैं मोटो वेन कलेक्टर बणी |" तभी मालो बा ने बीडी का धुंआ नाक से निकालते हुए समेलो बा की बात बिच में ही काटते हुए भविष्यवाणी  कर दी - " मू कोउ ओ छोरो मोटो वेन पुलीस बणी|" इतने में सब हंसते हुए अपने-अपने कयास लगाने लगे | मैं उन भोळे-भोळे कयासों को सुनकर मन ही मन मुस्कराये जा रहा था | तभी भोळा आया और बैठक के बिचो-बीच बैठे हीमतो बा के कान में कुछ कहकर चला गया | हीमतो बा उठे और अन्दर गये और कुछ देर बाद बाहर आ गये | बैठक के बीच आकर हीमतो बा हाथ जोडते हुए बोले- "लो सा खाणों तैयार हैं, पेला मेमोन-मेमोन पधारों|" तभी हम बीस-पच्चीस जनें उठ गये | नेनीया ने सभी के हाथ धुलवाये
| फिर हम खाने के लिए हीमतो बा के पिछे-पिछे अन्दर बडे़ आंगन में चले गये | वहां  देखा तो छोटे बाजोटीये (पाटीये) बिछा रखे थे | सब जने वहा जाकर बैठ गये | सबसे पहले गलबा साबलिया लेकर आया, और दो-दो रोटी रखता गया गलबा के बाद खसीया आया और सभी के गुड रखता हुआ चला गया | फिर पिछे-पिछे वीरमा आया, और वाडकी (घीलोटी से बडी) से घी परोसता चला गया | परम्परा है वाडकी से घी परोसते वक्त जब तक सामने वाला मना न करे तब तक घी की धार थाली में डाली जाती हैं, फिर चाहे पाव घी या आधा कीलो भी कोई खाने वाला क्यों न हो ! घी के बाद जगीया वाल्टी में ग्वार फली की सब्जी परोसता गया | उसके बाद भीबा आया, वो दाल परोसता हुआ चला गया | इसके बाद पदमा ने सभी के काटे गये कांदे(प्याज) परोसे | कांदे के बाद लक्ष्मणा आया और मुझे रायता परोसने लगा | जैसे ही रायता चमसे से थाली में डालने ही वाला था, कि अचानक हीमतो बा बिच में चिल्लाये "ऐ डफोळ बगरू (मुर्ख) हैं का वाटको लाव वाटको (कटोरी) , वाटका माय परूस | लक्ष्मण भागते हुए गया और वटकी ले आया और वटकी में मुझे रायता परोसने लगा | इतने में फिर हीमतो बा बोले - "दीपसा ऐ आजकल रा छोरा भणीया पण गणीया नी |" और कहने लगे, " अणो जतरा मैं भणीया वेता तो, कलेक्टर नेई पासो बेरावता|" सब जने खाने के साथ-साथ हीमतो बा की बातो का पुरा रसास्वादन भी कर रहे थे | इतने में हीमतो बा फिर बोले - "दीपसा थे कतरी सोपडी भणी (कितनी पढाई की) ?" मैंने कहा,"बा मैं सोलह सोपडी (बीए, बीएड) भणी हैं !" बा ने आश्चर्य के साथ- "का वात कीदी सोलवी पास ?" मैनें फिर कहा - "हां बा !" इतने में पास खडे धरमे को आंख दिखाते हुए हीमतो बा बोले-"डोफा धरमीया ! भणेई तो होरो वेई नी तो अटे यूज भैं-गाय रा पुछ ओमळजे|" खाने के साथ-साथ बातों का भी सिलसिला चल  रहा था | इतने में मैं खाना खाकर उठने ही लगा, तो हीमतो बा भागते हुए आये और एक रोटी जबरदस्ती रखते हुए बोले "म्हारी मनुआर तो राखणी पडेई एक फलको (रोटी) म्हारे तरफ ती जीमणो पडेई!" मैं भी उनकी बात कैसे टाल सकता था, और वापिस जम गया | इतने में पिछे से गमनो बा ने भी एक रोटी रख दी और बोले-" हीमता री मनुआर राखी तो एक फलको म्हारो भी जीमणो पडेई|" मेरे पास उनकी मनुआर रखने के अलावा कोई सहारा भी नहीं था | वैसे मुझे पुर्वानुमान भी था कि दो रोटी तो ज्यादा खानी ही पडेगी | क्योकि ऐसी मनवार मेरे साथ अक्सर होती रहती थी, जब भी मैं खाने के बाद उठने वाला होता | अब हीमतो बा और गमनो बा की मनवार मानने के बाद थाली लेकर  उठने ही वाला था कि हीमतो बा वापिस जोर से चिल्लाये -" ऐ नरींगा का देखे घुना वाळू लोटो लाव लोटो, थारो ध्योन कटे हैं?" और मुझे थाळी मे ही शळू (हाथ धलुवाये) करवा दिया | अब मेरा पेट तडातड हो चुका था | हीमतो बा भी मेरे साथ-साथ बाहर आये और मुझे नीम के नीचे ले गये | नीम के नीचे पहुंचकर वापिस जोर से आवाज लगाई "ऐ नरींगा खाटळों (चारपाई) लाव |" और मुझे थोडी देर वही नीम की गहरी छांव में आराम करने की मनवार करने लगे | मैने बा को कोई जरूरी काम बताकर पुन: जल्द मिलने आने का वादा करते हुए निकलने की परमीशन मांगी | तब हीमतो बा ने मेरे दोनों हाथ पकडते हुए कहा - " थे हमेशा यूइज झुठों वादो करो हो, कदेई आवता तो हो नी | और हीमतो बा बोले- "हमके घालो म्हारी सोगन की पासा जट आवोला|" मैंने भी हीमतो बा की आंखो में आंख डालकर सोगन के साथ कहा, "बा हमके टाईम मिलताई जरूर आवुला" का वादा दिया | अब मैं जाने के लिए जैसे ही पिछे मुडा तो मेरे जस्ट पिछे एक कुत्ता खडा था | हीमतो बा कुत्ता देख फिर जोर से चिल्लाये - "टेगा ! आगो मर" और पास खडे खसीया को कहा- "अरे खसीया ! अण गंडक (कुत्ते को) रे भाटो ठोक भाटो!" और बा मुझे गाडी तक छोडने आये | जैसे ही मैं गाडी में बैठकर गाडी़ मोडने लगा, तो पिछे खडे हीमतो बा एकबार फिर जोर से चिल्लाये,- " अरे दीपसा ! गाडी पेला थोडी लारे (पिछे) आवा दियो और पसे धके (आगे) लो |"  गाडी आगे से पुर्णतया मुडने की स्थति में होते हुए भी मैनें हीमतो बा की बात रखने के लिए गाडी को थोडी पिछे ले आया, और फिर आगे करते हुए रवाना हुआ | गाडी के पिछे की तरफ  खडे हीमतो बा दोनो हाथ जोडकर मुझे अभिवादन करने लगे | मैं भी मुस्कराते हुए उनका अभिवादन स्वीकार करते हुए आगे बढ गया | मैं अब गाडी चलाते-चलाते सोच रहा था, कि इन लोगों में आज भी कीतना निस्वार्थ मोह-प्रेम हैं ! क्या हम सहीत पिछे की पीढी़ इस मोह प्रेम को स्थाई रख पायेगी .................??
अब मन बहलाने के लिए जैसे ही गाडी में टेप चालु कीया, गीत बजने लगा, "तालरीयां-मगरीयां रे ..... मोरू बाई ल्यारे रिया ........आयो रे धोरों वाळों देश .......
अब चित्रपट चल रहा था, और दृश्य बदलते जा रहे थे !
.
- 🖋 दीप सिंह दूदवा



Thursday, January 4, 2018

'गोबर के लिए सर्जिकल स्ट्राईक'


सुबह चार बजे ही मां ने चिंतित होकर चमेली को आवाज दी- 'अरे ऐ चमेली ! उठ परी, आज भी लेट वैग्या तो दुजा लोग पोईला (गोबर) ले जाता रैवे |'
पुरे गांव में अधिकांश कच्चे ही घर थे | गांव में शादियों की सीजन, होली, दिवाली या कीसी नये त्यौहारों पर घरों को गोबर से लिपा जाता था | गांव में इतने भी पशु नहीं थे कि पुरे गांव को एक साथ इतना गोबर नसीब हो सके | इसलिए इन दिनों पुरे गांव में ही गोबर के लिए भागदौड़ मची थी हुई थी |
कल ही चमेली और उसकी मां रम्भा काकी सुबह पांच बजे ही उठकर गोबर के लिए आस-पडौस के बेरों व बाडो़ में गये थे, लेकिन उनसे पहले ही गांव के कोई ओर लोग गोबर उठा ले गये थे | गांव में सामाजिक सद्भावना का माहौल था | कीसी के भी बाडे़-बेरें  से कीसी भी जात-पात के कोई भी लोग गोबर ले जाओ, कोई मनाही नही थी | बस! शर्त यह थी कि पहले आओ पहले पाओ | जरूरी नहीं था कि गोबर उसी टाईम उठाओ, यदि आपने सबसे पहले जाकर वहां राख से उस गोबर के चारों तरफ लकीरें खींच दी, तो वो गोबर भी आपका ही माना जायेगा | फिर आप उस गोबर को दिन उगने के बाद भी वहां से उठा सकते थे, तब तक उसके कोई हाथ भी नही लगाता था | ये सुविधा उन परिवारों के लिए कारगार थी, जिनमें विधवा या जिन परिवार में कम सदस्य होते थे ताकि वो दिन उगने के बाद दुसरें सदस्यों की मदद से गोबर उठाकर अपने घर तक ले जा सकते थे |
आज रम्भा काकी ने अपनी पुत्री चमेली को चार बजे ही उठा दिया था | दोनों ने उठकर जल्द से मुंह धोने के बाद तगारीयां उठा दी और चल दिये भुरजी बा के बेरे की तरफ | भुरजी बा के बेरे पर करीब पन्द्रह-बीस भैंसे थी इसलिए पुरे गांव की नजर सबसे पहले भुरजी बा के बेरे पर ही रहती थी | दोनो के कदम तेज गति से भुरजी बा के बेरे की ओर चलने लगे | जैसे ही मां-बेटी वहां पहुंची, देखा तो छगनी व उसकी मां पहले से ही वहां गोबर उठा रही थी | उनको देखते ही मां ने धीमी मुस्कराहट के साथ चमेली की तरफ देखा जैसे ऐसे कह रही हो कि आज का जल्दी उठना भी व्यर्थ चला गया | जैसे ही छगनी ने चमेली को देखा तो दोनों एक दुसरें के सामने देख मुस्करानें लगी | तब छगनी ने चमेली से कहा- 'आपणे तो आज फाईनल कोम वैग्यो, तीन दिन ती भुरजी बा रे अठा ती मैइज पोईला (गोबर) ले जावो हो, आज तो बस लास्ट तीन-चार तगारीज पोईला री जरूरत हैं | बाकी वाळा पोईला (गोबर) थे ले जा सको हो |' इतना सुनकर चमेली ने चैन सी साँस ली और सोचा 'चलो आज का फेरा तो उपर नहीं पडा़ !'
अब चमेली और उसकी मां रम्भा जल्दी-जल्दी गोबर इकट्ठा करने लगी, देखा तो और लोग भुरजी बा के बेरे की ओर आये जा रहे हैं लेकिन चमेली व उसकी मां को वहां देखकर हँसते हुए वहां से वापिस दुसरें बेरों व पशु बाडो़ की तरफ भागे जा रहे हैं | चमेली और उसकी मां अब छगनी व उसकी मां द्वारा तीन-चार भैंसो का गोबर उठाने के बाद शेष रही भैंसो का गोबर इक्ट्ठा करने लगी | एक जगह सारा गोबर एकत्रित कर मां-बेटी तगारीयों से वो गोबर अपने घर ले जाने लगी | आज दोनो बडी़ प्रसन्न थी | आज वो दोनों जिस गली से भी गुजर रही होती, उस गली की औरतें बतियाती हुई कह रही थी - 'देखो ! आज चमेली अर उणरी मां गोबर ल्यायों रो, कालै आपणै भी बैगो उठणो पडैळा|' दुसरी तरफ चमेली और उसकी मां गांव की गलीयों से खुशी से मुस्करातें हुए आगे बढ रही थी | आज चमेली और उसकी मां की खुशी देख ऐसा लग रहा था जैसे दोनों ने एकसाथ आईएएस क्लियर कर लिया हो | जैसे ही दोनों ने तगारी उठायें घर में प्रवेश किया कि मै..मै..मै..मैं.. की आवाज ने उन्हें चाय की याद दिला दी | अब चमेली लोटा लिए बकरी को दुहते हुए मन ही मन प्रसन्न हुए जा रही थी और एक तरफ कोनें में पडी़ तगारीयों को भी लगातार निहारें जा रही थी |
🖋 दीप सिंह दूदवा

महात्मा गांधी: पुण्यतिथि पर शत् शत् नमन |

महात्मा गांधी : अहिंसा के पूजारी, राष्ट्रपिता व भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अगुवा | महात्मा गांधी द्वारा अपनी पत्नी कस्तूरबा को लिखे एक ...