Monday, January 15, 2018

पसरते अखबार, ऊबते पाठक

मुख्य मार्ग से दुर और छोटा गांव होने की वजह से अभी तक मेरा गांव डामरीकरण सड़क से नहीं जुड पाया था । पक्की सडक नहीं होने की वजह से गांव में साधन बहुत ही कम समय-चौघडी ही आते थे | उस समय गांव में साधन के नाम पर कुछ लोगो के पास ट्रैक्टर या एक-दो जीपें ही हुआ करती थी । बस के नाम पर एक बस आती थी जो भीनमाल से सुबह आठ बजे रवाना होकर साढे ग्यारह बजे के करीब मेरे गांव पहुंचती थी । रास्ता कच्चा होने की वजह से बस में एक मजदूर फावडा के लिए हमेशा बस के साथ ही रहता था | न जाने कौनसे वक्त बस कच्चे रास्ते में फंस जाये । बस के फंसने पर मजदूर, बस ड्राइवर और कंडक्टर के साथ-साथ सवारीयां भी नीचे उतरकर टायर के नीचे से रेत हटाकर सिणीये डालकर बस को धक्का देकर बाहर निकालते थे । और इस तरिके से बस बाहर निकलती थी और आगे का सफर तय होता था ।
बात करीब 1996-97 की है घर में दाता व पिताजी पढे लिखे थे, सो अखबार की हमेशा कमी खलती थी । इसलिए देश-दुनियां, फसलों के भाव-ताव और समसामयिक खबरों से जुडे रहने के लिए 1996 में भीनमाल से राजस्थान पत्रिका चालू करवाया गया । भीनमाल से पत्रिका हॉकर अखबार सुबह आठ बजे वहाँ से रवाना होने वाली बस मे चढा़ देता था और साढे ग्यारह बजे मेरे घर के पास से गुजरते वक्त कंडक्टर अखबार मेरे घर के पास फेंक देता था।
उन दिनों अखबार देखने/ पढने के लिऐ हमेशा चार-पांच चेहरे मेरे घर के पास बस का इंतजार कीया करते थे । राजस्थान पत्रिका हाथ में आते ही चेहरे पर अजीब मुस्कान आती थी | या यूं लगता था जैसे बहुत बर्षो बाद कोई रिश्तेदार बस से उतरकर हमारे गले लिपट रहा हो। बडा सुकुन मिलता था | अखबार के पहले पेज से लेकर अंतिम पेज का एक-एक अक्षर बडे गौ़र से पढते थे । लोगो के पास समय पर्याप्त था | अखबार की खबरे पढने के लिए लोग दुर-दुर से अपने खेतो से चले आते थे, फिर वहां फसलों के भाव से लेकर देश दुनियां भर की खबरो से अवगत होते थे । या यूं कहे कि मात्र एक अखबार की प्रति,  राजस्थान पत्रिका ने गांव के लोगों बीच एक अलग रिश्ता बना दिया था ।
हॉकर को हम अखबार के दुगुने दाम देया करते थे क्योंकि बस में चढा़ने की उसकी डेली की गारण्टी थी | लेकिन हमारे लिए उस एक अखबार का दाम तीन से चौगुना हो जाता था क्योंकि कई बार बस मे बैठे हुए यात्री अखबार पढने को ले लेते थे और वे पढते हुए भुल से बिच मे ले उतरते  थे, या कई बार कंडक्टर और ड्राइवर नये-नये होने की वजह से अखबार डालने की जगह का ध्यान नही होने से आगे लेकर चले जाते थे। महिने मे दस-बारह दिन ही अखबार आता था फिर भी कोई गम नही था।
हमे छोटी सी उम्र से ही अखबार पढने का चस्का लग गया था। जिस दिन अखबार हाथ नहीं लगता था, उस दौरान अजीब-सी बैचैनी होती थी। अखबार पढने में दो-चार घंटे लगा देते थे क्योंकि पुरा का पुरा अखबार पढना एक आदत-सी हो गई थी। उस दौर में अखबार में विज्ञापन नाम मात्र के हुआ करते थे ।
            समय बदलता गया 1999 में मेरा गांव डामर सडक से जुड गया | बसों के आवागमन की संख्या बढ गई | एक बस की जगह सात-आठ बसे आने लगी । सडक बनने से अन्य साधनों की संख्या में भी भारी बढोतरी हुई । सप्ताह में दो-तीन बार आने वाला अखबार भी डेली आने लगा | गांव में दिनोंदिन अखबारो की संख्या भी बढी, अब एक से बढकर बीस अखबार आने लगे । हर घर गाडी,ट्रैक्टर और मोटरसाइकिल आम बात हो गई । गांव के लोग कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी का सफर तय करने लग गये। पुलिस की गाडी देखकर बबुल और खिंप की आड मे छिपने वाले लोग पुलिस से आंख से आंख मिलाकर बात करने लग गये |गांव में बकरीयों की जगह घोडो ने ले ली | आठ सौ से हजार रूपये में बिकने वाली बकरीयों की जगह 31लाख में बिकने वाले घोडो ने ले ली ... समय कदम बढा रहा हैं ... अगली बार 31लाख की जगह 41 लाख में घोडा बिक जाय तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी .... समय की गति को कौन नियंत्रित कर सकता हैं ।
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अब आता हूं मेरी बात पर ....
बचपन से अखबार मुझ सहित हजारों लोगो की दिनचर्या का आम हिस्सा रहा हैं | हम जिस दिन अखबार नही पढ पाते उस दिन यूं महसूस होता है जैसे आज कुछ मिस किया हैं | लेकिन आज अखबार पढने वाले पाठकों की इस प्रवृति का अखबार निकालने वाले घराने चाहे राजस्थान पत्रिका हो या भास्कर | दैनिक नवज्योति हो राष्ट्रदुत |या सभी अन्तर्राष्ट्रीय अखबार जो भरपुर दोहन करते हैं । अखबारों मे आजकल समाचार कम और विज्ञापन ज्यादा होते हैं । कभी समय था जब समाचारों के बिच विज्ञापन हुआ करते थे लेकिन आजकल विज्ञापनो के बिच समाचार ढूंढने पडते हैं । पहले विज्ञापनो को अंतिम पेज पर स्थान दिया जाता था, लेकिन आजकल पहले पेज से ही कभी-कभी तो लगातार चार पांच पेज विज्ञापन के ही दिखते हैं । आज पाठकों को मजबूरन ही न चाहते हुए भी विज्ञापनों पर नजर डालनी पडती हैं । हद तो तब होती हैं जब अखबारों को बेचने के लिए तरह तरह के ऑफर निकालने पड जाते हैं | जो  अखबार कभी खबरों के दम पर बिका करते थे और लोगो में अखबारों की विश्वसनीयता बनी रहती थी । आजकल विज्ञापनों के युग में अखबार अपनी विश्वसनीयता खोते जा रहे हैं | लोगो की पहले जो आस्था अखबारों में हुआ करती थी, अब दिन-प्रतिदिन घटती जा रही हैं । सोसल मिडिया के जमाने में समय रहते अखबार घरानों ने समय रहते पाठकों की समस्या पर ध्यान नही दिया तो अखबारों की लोकप्रियता के साथ-साथ प्रिंटमिडिया पर भी खतरा मंडराता  हुआ नजर आयेगा ।
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🖋दीपसिंह दूदवा
( मेरी 6 नवम्बर 2016 की फेसबुक वॉल से पोस्ट)

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