#कोयल (किसानों का कैंप फायर)
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कोयल का नाम सुनते ही एक काले पक्षी की छवि उभर आती हैं जिसकी मीठास के हम सब कायल हैं | पर यहां पर 'कोयल' का मतलब पक्षी ना होकर 'कोयल' गांव की एक स्वस्थ परंपरा का नाम हैं | अजीब लगता हैं कि ऐसा कैसा परंपरा का नाम ?
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हमारा देश अधिकतर गांवो में ही बसता हैं | वैसे तो भारत की संस्कृति दुनियां की अनुठी व अलबेली संस्कृति हैं | जहां पग-पग पर अलग-अलग परंपराएं व रीति-रिवाज हैं | ऐसा ही एक रिवाज/परंपरा हमारे क्षेत्र में भी हैं जिसका नाम हैं 'कोयल' |
वैसे तो किसान के लिए हर दिन त्यौहार ही होता हैं पर कुछ त्यौहार व परंपराएं अलग अहसास का अनुभव करवाती हैं |
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कोयल- जिसमें किसान लोग वर्षभर में एकबार अपने खेत के रक्षक देवता रामदेवजी (अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग देवता) को चुरमें का भोग लगाते हैं |
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'कोयल' का आयोजन सर्दीओं के मौसम में करीब दो महिने तक उजाळे पक्ष में कीया जाता हैं | आयोजन करने वाला परिवार पहले पुरे गांव के लोगो को "हैला" भेजकर रात्रि के समय सभी को आमंत्रित करता हैं | इधर 'कोयल' के लिए बुलावा भेजने वाले के घर पर खुली गुआडी या आंगन में जलाने के लिए लकडीयां सजा दी जाती हैं | फिर रात्री के समय सात बजे से लोगों का आना शुरू हो जाता हैं | लोगों के आते ही लकडीयों में आग लगाई जाती हैं | जैसे-जैसे लोग आते रहते हैं वैसे-वैसे उन जलती लकडीयों के चारों तरफ बैठते रहते हैं | सभी के आने के बाद फिर दौर चलता हैं मनुहारों का ! जिसमें बीडी़-चिलम, चाय व अमल (जो अब लगभग बंधाणीयों तक ही सीमित हो गया हैं ) का | उधर कोयल का आयोजन करने वाले के घर पर धमीड़-धमीड़ की आवाज का गुंजना आरंभ होता हैं (मतलब रामदेव जी को भोग लगाने हेतु चुरमे की कुटाई आरंभ ) जिसमें गांव के युवा पुर्णतया सहयोग करते हैं | इधर लकडीयों पर आग अपने पुरे परवान पर बढने लगती हैं, जैसे-जैसे आग की लपटे उपर बढने लगती हैं वैसे-वैसे ईर्द-गिर्द बैठे ग्रामवासीयों के ठहाकें व उनकी बाते भी परवान पर चढनें लगती हैं | जिसमें न केवल खेती बल्कि गांव की समस्याओं से लेकर वर्तमान राजनीति को चिरते हुए बुजुर्गो के ठेठ बचपन की बाते भी होने लगती हैं | जोर के ठहाकों व भुतकाल के स्वर्णिम किस्सो को सुनकर ठंड खुद भी वहां से अपना पहरा हटाने लगती हैं और फिर होता हैं सर्दी में भी गर्मी का अहसास | दुसरी तरफ कुछ युवा खेजडी़ के नीचे बने थडकलै पर नाळ में अंगारे लिए हुए जाते दिखते हैं और फिर वहां बैठकर रामदेवजी को चुरमें का भोग चढाते हुए होठ हिलाते हैं | ऐसे लगता हैं कि जैसे उनके होठ शायद कह रहे हो "बावजी साजा-ताजा राखजो, पुरा गोव ने भी खुशहाल ऱाखजो, शोंती ऱाखजो, हमके पैदावार में लीला लैर करजौ|"
चुरमें का भोग लगाते ही सबके खाने की तैयारी भी शुरू हो जाती हैं | कैंप फायर के पास ही बिछे राळकै पर ही खाने का प्रबंध होता हैं | बच्चें इसमें अतिउत्साहित रहते हैं, उनके लिये ये मनोरंजन के साथ-साथ आनंद का त्यौहार भी होता हैं | थालीयां, साबळीयां, घी की वाडकी, सब्जी की वाल्टीयां लाई जाती हैं | और फिर शुरूआत होती हैं भरपुर चुरमा परोसने के साथ | कम से कम दो बार चुरमा तो लेना ही पडता हैं, चाहे आप कीतनी भी ना-नुकुर करलो | और दुसरी बार चुरमा नही लिया तो औळबा अलग से सुनने को मिलेगा कि "तुम्होरे वो फळाणा दादाजी-काकाजी तो इतने सोगरे तो केवल नाश्ते में ही हजम कर जाते थे और एक आप हैं कि दुसरी बार भी चुरमा लेने से कतरा रहे हैं | वैसे इस मैदान में बडे़-बडे़ सूरमे भी मौजुद होते हैं, जो तीसरी और चौथी बार भी अपनी बत्तीसी दिखाकर चुरमें वाले को अपनी तरफ आने का निमंत्रण देते भी दिखते हैं | आजकल चुरमें के अलावा हल्दी का भी प्रचलन 'कोयल' में चार चांद लगाने लगा हैं |
करीब तीन-चार घंटे तक चलने वाले इस स्वस्थ परंपरा में मेरे जैसे कई युवाओं को बहुत कुछ सिखने को मीलता हैं | मैं तो इस 'कोयल' परंपरा को ग्रामीणांचल की लघु फील्म समझता हूं | जिसमें आपको गांव के सन्दर्भ में सैकडों साल पुराने गांव के झुंझार/मामाजी बावसी के इतिहास से लेकर मोदी-केजरीवाल व अनार की नवीनतम खेती की तकनीकी जानकारी भी उपलब्ध हो जाती हैं |
अंत में गांवो की इन छोटी-छोटी परंपराओं को लेकर इतना ही कहना चाहुंगा, कि यदि ये परंपराएं जीवित रही तो गांव जिंदा रहेंगे और गांव जिंदा रहे तो ये देश और ये संस्कृति भी जिंदा रह सकेगी |
-🖋 दीप सिंह दूदवा
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कोयल का नाम सुनते ही एक काले पक्षी की छवि उभर आती हैं जिसकी मीठास के हम सब कायल हैं | पर यहां पर 'कोयल' का मतलब पक्षी ना होकर 'कोयल' गांव की एक स्वस्थ परंपरा का नाम हैं | अजीब लगता हैं कि ऐसा कैसा परंपरा का नाम ?
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हमारा देश अधिकतर गांवो में ही बसता हैं | वैसे तो भारत की संस्कृति दुनियां की अनुठी व अलबेली संस्कृति हैं | जहां पग-पग पर अलग-अलग परंपराएं व रीति-रिवाज हैं | ऐसा ही एक रिवाज/परंपरा हमारे क्षेत्र में भी हैं जिसका नाम हैं 'कोयल' |
वैसे तो किसान के लिए हर दिन त्यौहार ही होता हैं पर कुछ त्यौहार व परंपराएं अलग अहसास का अनुभव करवाती हैं |
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कोयल- जिसमें किसान लोग वर्षभर में एकबार अपने खेत के रक्षक देवता रामदेवजी (अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग देवता) को चुरमें का भोग लगाते हैं |
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'कोयल' का आयोजन सर्दीओं के मौसम में करीब दो महिने तक उजाळे पक्ष में कीया जाता हैं | आयोजन करने वाला परिवार पहले पुरे गांव के लोगो को "हैला" भेजकर रात्रि के समय सभी को आमंत्रित करता हैं | इधर 'कोयल' के लिए बुलावा भेजने वाले के घर पर खुली गुआडी या आंगन में जलाने के लिए लकडीयां सजा दी जाती हैं | फिर रात्री के समय सात बजे से लोगों का आना शुरू हो जाता हैं | लोगों के आते ही लकडीयों में आग लगाई जाती हैं | जैसे-जैसे लोग आते रहते हैं वैसे-वैसे उन जलती लकडीयों के चारों तरफ बैठते रहते हैं | सभी के आने के बाद फिर दौर चलता हैं मनुहारों का ! जिसमें बीडी़-चिलम, चाय व अमल (जो अब लगभग बंधाणीयों तक ही सीमित हो गया हैं ) का | उधर कोयल का आयोजन करने वाले के घर पर धमीड़-धमीड़ की आवाज का गुंजना आरंभ होता हैं (मतलब रामदेव जी को भोग लगाने हेतु चुरमे की कुटाई आरंभ ) जिसमें गांव के युवा पुर्णतया सहयोग करते हैं | इधर लकडीयों पर आग अपने पुरे परवान पर बढने लगती हैं, जैसे-जैसे आग की लपटे उपर बढने लगती हैं वैसे-वैसे ईर्द-गिर्द बैठे ग्रामवासीयों के ठहाकें व उनकी बाते भी परवान पर चढनें लगती हैं | जिसमें न केवल खेती बल्कि गांव की समस्याओं से लेकर वर्तमान राजनीति को चिरते हुए बुजुर्गो के ठेठ बचपन की बाते भी होने लगती हैं | जोर के ठहाकों व भुतकाल के स्वर्णिम किस्सो को सुनकर ठंड खुद भी वहां से अपना पहरा हटाने लगती हैं और फिर होता हैं सर्दी में भी गर्मी का अहसास | दुसरी तरफ कुछ युवा खेजडी़ के नीचे बने थडकलै पर नाळ में अंगारे लिए हुए जाते दिखते हैं और फिर वहां बैठकर रामदेवजी को चुरमें का भोग चढाते हुए होठ हिलाते हैं | ऐसे लगता हैं कि जैसे उनके होठ शायद कह रहे हो "बावजी साजा-ताजा राखजो, पुरा गोव ने भी खुशहाल ऱाखजो, शोंती ऱाखजो, हमके पैदावार में लीला लैर करजौ|"
चुरमें का भोग लगाते ही सबके खाने की तैयारी भी शुरू हो जाती हैं | कैंप फायर के पास ही बिछे राळकै पर ही खाने का प्रबंध होता हैं | बच्चें इसमें अतिउत्साहित रहते हैं, उनके लिये ये मनोरंजन के साथ-साथ आनंद का त्यौहार भी होता हैं | थालीयां, साबळीयां, घी की वाडकी, सब्जी की वाल्टीयां लाई जाती हैं | और फिर शुरूआत होती हैं भरपुर चुरमा परोसने के साथ | कम से कम दो बार चुरमा तो लेना ही पडता हैं, चाहे आप कीतनी भी ना-नुकुर करलो | और दुसरी बार चुरमा नही लिया तो औळबा अलग से सुनने को मिलेगा कि "तुम्होरे वो फळाणा दादाजी-काकाजी तो इतने सोगरे तो केवल नाश्ते में ही हजम कर जाते थे और एक आप हैं कि दुसरी बार भी चुरमा लेने से कतरा रहे हैं | वैसे इस मैदान में बडे़-बडे़ सूरमे भी मौजुद होते हैं, जो तीसरी और चौथी बार भी अपनी बत्तीसी दिखाकर चुरमें वाले को अपनी तरफ आने का निमंत्रण देते भी दिखते हैं | आजकल चुरमें के अलावा हल्दी का भी प्रचलन 'कोयल' में चार चांद लगाने लगा हैं |
करीब तीन-चार घंटे तक चलने वाले इस स्वस्थ परंपरा में मेरे जैसे कई युवाओं को बहुत कुछ सिखने को मीलता हैं | मैं तो इस 'कोयल' परंपरा को ग्रामीणांचल की लघु फील्म समझता हूं | जिसमें आपको गांव के सन्दर्भ में सैकडों साल पुराने गांव के झुंझार/मामाजी बावसी के इतिहास से लेकर मोदी-केजरीवाल व अनार की नवीनतम खेती की तकनीकी जानकारी भी उपलब्ध हो जाती हैं |
अंत में गांवो की इन छोटी-छोटी परंपराओं को लेकर इतना ही कहना चाहुंगा, कि यदि ये परंपराएं जीवित रही तो गांव जिंदा रहेंगे और गांव जिंदा रहे तो ये देश और ये संस्कृति भी जिंदा रह सकेगी |
-🖋 दीप सिंह दूदवा
बहुत सुन्दर लिखा है दीपसा...
ReplyDeleteवाकई आपकी लेखनी भी बहुत मंजी हुई है।
अच्छी बात इसलिए लगी कि यह ठेत देहात की उन परम्पराओं का आपने वर्ण किया है जो विलुप्त सी हो गयी है..
आगे भी लिखते रहे
आभार व स्नेह
ReplyDeleteबहुत खूब दीपसा। इस प्रकार के त्यौहार ग्रामीण संस्कृति की आत्मा होते है।
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