{पन्द्रह वर्ष पुर्व तक गांव का दृश्य}
समाचार मिला की अब वो इस दुनियां में नही रहा | पुरे गांव में शोक की लहर छा गई | गांव में छत्तीस कौम के लोग सफेद कपडा़ सिर पर बांधकर उसके घर की ओर दौड़ने लगे | देखा, तो घर के लोग रो-रो कर शोक मना रहे है | गांव के बुजुर्ग व महिलायें उस परिवार को सांत्वना देते हुए ढांढस बढा रहे है, तो दुसरी तरफ गांव के युवा लोग अर्थी बनाने में सहयोग करते हुए अंतिम यात्रा की तैयारी कर रहे हैं |
अर्थी तैयार होने के बाद कुछ रस्मोरिवाज अदा कीये गये, बाद में परिवार के लोगो द्वारा अर्थी को कंधा दिया गया | 'राम नाम सत् है' के मंत्रो के साथ अंतिम यात्रा शमसान तक पहुंचती है, जहां पहले से ही गांव के युवाओं ने पहुंच कर लकडी़यों का ढेर लगा दिया था | अर्थी को कंधो से उतारा गया और रस्मों रिवाज उपरांत पार्थिव देह को लकडीयों के ढेर पर रखा गया, जिसे उसके सबसे बडे पुत्र ने भारी मन से अग्नि स्नान करवाया | कुछ समय वहां रूकने के बाद सब लोग उसके घर की ओर लौटने लगे, उनके घर पहुंचने से पहले ही गांव के लोग चाय और खाना लेकर आ चुके होते है | क्योंकि उस दिन शोक वाले के घर पर चुल्हा नहीं जलाया जाता है |
अब गांव के बुजुर्ग लोग शोक में डुबे परिवार को 'भगवान की मर्जी के आगे कीसी की नहीं चलती' जैसे शब्दों से सांत्वना देते हुए पुरे परिवार को गांव के अन्य घरों से आया भोजन खिलाते हैै | इतने में गांवभर से ट्रैक्टर-ट्रॉली में गांव के लोग अपने घरों से खाट-पलंग, बिस्तर, दूध,दही, सब्जियां और बर्तन ले आते है |
शोक में डुबे घर पर गांव के लोग इस तरह मुस्तैद है कि कहीं कोई कमी न रह जाये, जिससे शोक में डुबा परिवार अपने को इस दुख की घडी़ में असहाय महसूस करें | गांव वालों से इतना सहयोग मिल रहा है कि उस परिवार को महसूस ही नहीं होता कि आज अपने परिवार से कोई सदस्य कम भी हुआ है |
इस तरह गांव के भरपुर सहयोग के साथ एक-एक करते बारह दिन निकल जाते है और उस परिवार को भान तक नहीं होता, कि हमने कीसी को खोया भी है | उन दिनों गांव का वातावरण और अपनत्व ही कुछ ऐसा था कि शोक वाले परिवार को मालुम तक नहीं चलता था कि उसके परिवार से कोई दुनियां छोड़ के जा चुका हैं |
उन दिनों गांव का वातावरण भी कुछ ऐसा था, जिसकी मिसालें बडे़-बडे़ लेखक और कवि अपने साहित्य और कविताओं में उखेरते थकते नहीं थे |
आज ! समय और लोगों की मानसिकता ने करवट बदल दी है | आज लोगो द्वारा पाश्चात्य संस्कृति, राजनीतिक महत्वाकांक्षी लोगो का अनुसरण करने, स्वविवेक का उपयोग नहीं कर पाने व जातिवादी सोच के कुचक्र में फंसने से गांव और ग्रामीण संस्कृति की दशा बदहाल होती जा रही है |
अब आज की युवा पीढी़ को सचेत होना होगा! स्वविवेक का उपयोग करना होगा! वरना आने वाली पीढी़ को असली ग्रामीण संस्कृति केवल और केवल मुंशी प्रेमचंद और अन्य लेखकों के साहित्य में ही पढने को मिलेगी |
- 🖋 दीप सिंह दूदवा
अगर लोगो मे ऐसे भावों का पुनः प्रादुर्भाव हो जाये, तो देश पुनः सोने की चिड़िया बन जाए।
ReplyDeleteसत्य वचन
Deleteअज़ाने मगरिब की आवाजें घर में जाती थी,
ReplyDeleteपंडित के घर की भी औरत तभी दिया जलाती थी।
इन नेताओं के चक्कर में रिश्ता हमारा टूट गया,
ईद दीवाली और होली अब साथ मनाना छूट गया।
मंदिर मस्जिद के नामों पर अपनों को ही काटा है,
खून में कोई फ़र्क नहीं बस राजनीति ने बांटा है।
सत्य वचन
Deleteये कतिपय अतिमहत्वाकांक्षी लोगों के निजी स्वार्थ हैं जो हमें समन्वय की भावना से दूर करते हैं, अन्यथा समस्त समाज तो एक है ही।
ReplyDeleteसही फरमाये सर
ReplyDeleteसही फरमाये सर
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