उन दिनों की बात हैं | जब न तो गांव में और ना ही गांव के आस-पास में इतने टेंट हाउस हुआ करते थे |
गांव में कोई भी पारिवारिक कार्यक्रम होता, तो गांव के अन्दर से ही पुरा सामान जुटाया जाता था |
चाहे खाटळे, बिस्तर, तकियां, खाट-पछेडे, दरी, जाजम, दूध, दही, ऊंट-गाडे़, जीप तक | बहुत ही कम सामान शहर से लाना पड़ता था | उन दिनों लोगो में सामाजिकता व उधार का भाव था | लोगों में आज इनकी तो कल अपनी बारी के जिम्मेदारी का अहसास था |
बारात आती थी तो पुरा का पुरा गांव पांव पर खडा़ रहता था | पुरा गांव ही एक घर समझा जाता था | बुजुर्ग व गांव के जिम्मेदार लोग तब तक बिना खाये ही मेहनानवाजी में खडे़ रहते थे, जब तक गांव की बच्ची के फेरे खाने की रस्म अदायगी नहीं हो जाती थी | या युं कहे कि बेटी के बाप से ज्यादा गांव के जिम्मेदार लोगों को चिंता हुआ करती थी | बेटी का बाप निश्चिंत हुआ करता था, गांव के लोगो पर उसे पुरा भरोसा होता था |
ऐसे लगता था जैसे शादी कोई शादी न होकर गांव में सामाजिक एकता का मेला हों |
समय ने करवट बदलीं रेडीमेड का जमाना आया | टेंट आया, टेंट के साथ-साथ वेटर प्रथा भी आई |
आज समय इतना बदला कि अब बारात आने की मामुली रस्म अदायगी के बाद बारातियों व वेटर का ही आमना सामना होता हैं | बाराती अपनी मस्ती में मस्त हैं, घराती अपनी मस्ती में मस्त, तो गांव वाले अपनी में मस्ती में मस्त हैं | न कोई जिम्मेदारी का अहसास न सामाजिकता का भाव बस केवल खडे़-खडे़ दर्शकों की भांति सब मनोरंजन करते नजर आते हैं | आज सब जगह पैसों का बोलबाला बना हुआ हैं |
न बाराती, बाराती को पहचानता हैं ..और न ही घराती, घराती को |
सब अपनी मस्ती में मस्त हैं | बारात आने से लेकर जाने तक बेटी के बाप की नींद हराम हो जाती हैं, आज डर हैं कि कही विवाह बिगड़ न जाय | अब जिम्मेदार लोगो की संख्या राज्य पक्षी 'गोडावण' की भांति लुप्त होती जा रही हैं | आज इस तरह सामाजिक मुल्यों को गिरते देखकर लगता हैं कि आने वाला समय सामाजिक एकता के भाव से और भी भयानक होगा व चिंतनीय होगा |
खैर! समय की गति पर किसका नियंत्रण हैं |
🖋 दीप सिंह दूदवा
गांव में कोई भी पारिवारिक कार्यक्रम होता, तो गांव के अन्दर से ही पुरा सामान जुटाया जाता था |
चाहे खाटळे, बिस्तर, तकियां, खाट-पछेडे, दरी, जाजम, दूध, दही, ऊंट-गाडे़, जीप तक | बहुत ही कम सामान शहर से लाना पड़ता था | उन दिनों लोगो में सामाजिकता व उधार का भाव था | लोगों में आज इनकी तो कल अपनी बारी के जिम्मेदारी का अहसास था |
बारात आती थी तो पुरा का पुरा गांव पांव पर खडा़ रहता था | पुरा गांव ही एक घर समझा जाता था | बुजुर्ग व गांव के जिम्मेदार लोग तब तक बिना खाये ही मेहनानवाजी में खडे़ रहते थे, जब तक गांव की बच्ची के फेरे खाने की रस्म अदायगी नहीं हो जाती थी | या युं कहे कि बेटी के बाप से ज्यादा गांव के जिम्मेदार लोगों को चिंता हुआ करती थी | बेटी का बाप निश्चिंत हुआ करता था, गांव के लोगो पर उसे पुरा भरोसा होता था |
ऐसे लगता था जैसे शादी कोई शादी न होकर गांव में सामाजिक एकता का मेला हों |
समय ने करवट बदलीं रेडीमेड का जमाना आया | टेंट आया, टेंट के साथ-साथ वेटर प्रथा भी आई |
आज समय इतना बदला कि अब बारात आने की मामुली रस्म अदायगी के बाद बारातियों व वेटर का ही आमना सामना होता हैं | बाराती अपनी मस्ती में मस्त हैं, घराती अपनी मस्ती में मस्त, तो गांव वाले अपनी में मस्ती में मस्त हैं | न कोई जिम्मेदारी का अहसास न सामाजिकता का भाव बस केवल खडे़-खडे़ दर्शकों की भांति सब मनोरंजन करते नजर आते हैं | आज सब जगह पैसों का बोलबाला बना हुआ हैं |
न बाराती, बाराती को पहचानता हैं ..और न ही घराती, घराती को |
सब अपनी मस्ती में मस्त हैं | बारात आने से लेकर जाने तक बेटी के बाप की नींद हराम हो जाती हैं, आज डर हैं कि कही विवाह बिगड़ न जाय | अब जिम्मेदार लोगो की संख्या राज्य पक्षी 'गोडावण' की भांति लुप्त होती जा रही हैं | आज इस तरह सामाजिक मुल्यों को गिरते देखकर लगता हैं कि आने वाला समय सामाजिक एकता के भाव से और भी भयानक होगा व चिंतनीय होगा |
खैर! समय की गति पर किसका नियंत्रण हैं |
🖋 दीप सिंह दूदवा
आज भी भारतीय संस्कृति की झलक ग्रामीण अंचल में ही दिखती हैं। आधुनिकता की चकाचौन्ध ने ग्रामीण भारतीय संस्कृति को खतरे में डाल दिया हैं। जिस पर आपका सुन्दर लेख सराहनीय और बोधगम्य हैं।
ReplyDeleteभारतीय संस्कृति विश्वभर में अनुठी हैं | उसमें भी राजस्थान की संस्कृति की तो बात ही कुछ और हैं इसकी अवळुडी रित रिवाज यहां के जन मानस को अपनी जडो़ से जुडे़ हुए रखती हैं |
Deleteआभाकी टिप्पणी के लिए आभार पत्रकार साहब |