Tuesday, January 30, 2018

महात्मा गांधी: पुण्यतिथि पर शत् शत् नमन |

महात्मा गांधी : अहिंसा के पूजारी, राष्ट्रपिता व भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अगुवा |
महात्मा गांधी द्वारा अपनी पत्नी कस्तूरबा को लिखे एक खत से उनके जीवन व अपने देश के प्रति समर्पण की झलक मिलती हैं तो एक संस्मरण में उनके समय प्रबंधन की झलक वहीं उनका हत्यारा नथूराम गोडसे महात्मा गांधी के द्वारा की गई देश सेवा के प्रति नतमस्तक था |
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                         09.11.1908
तेरी तबीयत के बारे में श्री वेहर ने आज तार भेजा हैं | मेरा ह्रदय चूर-चूर हो रहा हैं; परंतु तेरी चाकरी करने के लिए आ सकूँ, ऐसी स्थिति नहीं है | सत्याग्रह की लडा़ई में मैंने सब कुछ अर्पित कर दिया है | मैं वहां आ ही नहीं सकता | जुर्माना भर दूं, तभी आ सकता हूं | जुर्माना तो हरगिज़ नहीं दिया जा सकता ! तू साहस बनाए रखना | कायदे से खाना खाओगी तो ठीक हो जाओगी | फिर भी मेरे नसीब से तू जाएगी ही, ऐसा होगा तो मैं तुझको इतना लिखता हूँ कि तू वियोग में, पर मेरे जीते-जी चल बसेगी, तो बुरी बात न होगी | मेरा स्नेह तुझ पर इतना कि मरने पर भी तू मेरे मन में जीवित ही रहेगी ! यह मैं तुझसे निश्चचयपूर्वक कहता हूँ कि अगर तुझे जाना ही होगा, तो तेरे पीछे मैं दूसरी स्त्री करने वाला नहीं हूँ ! यह मैंने तुझे एक-दो बार कहा भी हैं | तू ईश्वर पर आस्था रखकर प्राण छोड़ना, तू मरेगी तो वह भी सत्याग्रह के अनुकूल है | मेरी लडा़ई केवल राजकीय नहीं है | यह लडा़ई धार्मिक है अर्थात अति स्वच्छ है | इसमें मर जाएँ तो भी क्या और जीवित रहें तो भी क्या ? तू भी ऐसा ही जानकर अपने मन में ज़रा भी बुरा नहीं मानेगी, ऐसी मुझे उम्मीद है | तुमसे यह मेरी माँग है !
                                 -म. गांधी
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महात्मा गांधी का समय प्रबंधन हम सबके लिए अनुकरणीय हैं -
महात्मा गांधी वक्त के पाबंद थे | समय प्रबंधन को लेकर उनका विचार था कि जितना काम हम कर सकते है, अगर उससे कम करते है, तो यह एक प्रकार की चोरी है | इसीलिए गांधी इस पर हमेशा जोर देते थे |
समय प्रबंधन का गांधी जी के जीवन का एक सटीक उदाहरण -
एक प्राध्यापक को लिखे पत्र में वे कहते है: मेरी घडी़ मुझे याद दिला रही है कि अब चहलक़दमी का समय हो गया है और उसकी आज्ञा का पालन मुझे करना ही होगा, इसलिए मैं इस पत्र को यहीं समाप्त करता हूं |
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30 जनवरी 1948 पांच बजकर बारह मीनट पर नथूराम गोडसे ने प्रार्थना सभा के लिए जा रहे महात्मा गांधी को गोली मारकर हत्या कर दी | पुरा देश स्तब्ध रह गया | बापू के प्रति पुरे देश की श्रद्धा थी |
नथूराम गोडसे भी उनके देशसेवा का कायल था पर अंतिम समय में गोडसे महात्मा गांधी को हिन्दुस्तान के बँटवारे का दोषी व पक्षपाती माना और इस दुष्कृत्य को अंजाम दे बैठा |

नथुराम गोडसे 'गांधी वध क्यों?' में लिखता है - "मैं मानता हूँ कि गांधी जी ने देश के लिए बहुत कष्ट उठाए, जिसके कारण मैं उनकी सेवा के प्रति एवं उनके प्रति नतमस्तक हूँ, किंतु देश के इस सेवक को भी जनता को धोखा देकर मातृभूमी के विभाजन का अधिकार नहीं था |
मैं किसी प्रकार की दया नहीं चाहता हूँ |  मैं यह भी नहीं चाहता हूँ कि मेरी ओर से कोई दया की याचना करे |
अपने देश के प्रति भक्ति-भाव रखना यदि पाप है तो मैं स्वीकार करता हूँ कि वह पाप मैंने किया है | यदि वह पुण्य है तो उससे जनित पुण्य-पद पर मेरा नम्र अधिकार है |
मेरा विश्वास अडिग है कि मेरा कार्य नीति की दृष्टि से पूर्णतया उचित है | मुझे इस बात में लेशमात्र भी संदेह नहीं कि भविष्य में कीसी समय सच्चे इतिहासकार लिखेंगे तो वे मेरे कार्य को उचित ठहराएँगे |
                         -नथूराम गोडसे
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🖋 दीप सिंह दूदवा

Monday, January 29, 2018

गांव की शांत फिजां में जहर घोलता जातिवाद


{पन्द्रह वर्ष पुर्व तक गांव का दृश्य}

समाचार मिला की अब वो इस दुनियां में नही रहा | पुरे गांव में शोक की लहर छा गई | गांव में छत्तीस कौम के लोग सफेद कपडा़ सिर पर बांधकर उसके घर की ओर दौड़ने लगे | देखा, तो घर के लोग रो-रो कर शोक मना रहे है | गांव के बुजुर्ग व महिलायें उस परिवार को सांत्वना देते हुए ढांढस बढा रहे है, तो दुसरी तरफ गांव के युवा लोग अर्थी बनाने में सहयोग करते हुए अंतिम यात्रा की तैयारी कर रहे हैं |
अर्थी तैयार होने के बाद  कुछ रस्मोरिवाज अदा कीये गये,  बाद में परिवार के लोगो द्वारा अर्थी को कंधा दिया गया | 'राम नाम सत् है' के मंत्रो के साथ अंतिम यात्रा शमसान तक पहुंचती है, जहां पहले से ही गांव के युवाओं ने पहुंच कर लकडी़यों का ढेर लगा दिया था | अर्थी को कंधो से उतारा गया और रस्मों रिवाज उपरांत पार्थिव देह को लकडीयों के ढेर पर रखा गया, जिसे उसके सबसे बडे पुत्र ने भारी मन से अग्नि स्नान करवाया | कुछ समय वहां रूकने के बाद सब लोग उसके घर की ओर लौटने लगे, उनके घर पहुंचने से पहले ही गांव के लोग चाय और खाना लेकर आ चुके होते है | क्योंकि उस दिन शोक वाले के घर पर चुल्हा नहीं जलाया जाता है |
 अब गांव के बुजुर्ग लोग शोक में डुबे परिवार को 'भगवान की मर्जी के आगे कीसी की नहीं चलती' जैसे शब्दों से सांत्वना देते हुए पुरे परिवार को गांव के अन्य घरों से आया भोजन खिलाते हैै | इतने में गांवभर से ट्रैक्टर-ट्रॉली में गांव के लोग अपने घरों से खाट-पलंग, बिस्तर, दूध,दही, सब्जियां और बर्तन ले आते है |
शोक में डुबे घर पर गांव के लोग इस तरह मुस्तैद है कि कहीं कोई कमी न रह जाये, जिससे शोक में डुबा परिवार अपने को इस दुख की घडी़ में असहाय महसूस करें | गांव वालों से इतना सहयोग मिल रहा है कि उस परिवार को महसूस ही नहीं होता कि आज अपने परिवार से कोई सदस्य कम भी हुआ है |
इस तरह गांव के भरपुर सहयोग के साथ एक-एक करते बारह दिन निकल जाते है और उस परिवार को भान तक नहीं होता, कि हमने कीसी को खोया भी है | उन दिनों गांव का वातावरण और अपनत्व ही कुछ ऐसा था कि शोक वाले परिवार को मालुम तक नहीं चलता था कि उसके परिवार से कोई दुनियां छोड़ के जा चुका हैं |
उन दिनों गांव का वातावरण भी कुछ ऐसा था, जिसकी मिसालें बडे़-बडे़ लेखक और कवि अपने साहित्य और कविताओं में उखेरते थकते नहीं थे |
आज ! समय और लोगों की मानसिकता ने करवट बदल दी है  | आज लोगो द्वारा पाश्चात्य संस्कृति, राजनीतिक महत्वाकांक्षी लोगो का अनुसरण करने, स्वविवेक का उपयोग नहीं कर पाने व जातिवादी सोच के कुचक्र में फंसने से गांव और ग्रामीण संस्कृति की दशा बदहाल होती जा रही है |
अब आज की युवा पीढी़ को सचेत होना होगा! स्वविवेक का उपयोग करना होगा! वरना आने वाली पीढी़ को असली ग्रामीण संस्कृति केवल और केवल मुंशी प्रेमचंद और अन्य लेखकों के साहित्य में ही पढने को मिलेगी |
- 🖋 दीप सिंह दूदवा


Friday, January 26, 2018

गांव के किसानों का कैंप फायर

#कोयल (किसानों का कैंप फायर)
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कोयल का नाम सुनते ही एक काले पक्षी की छवि उभर आती हैं जिसकी मीठास के हम सब कायल हैं | पर यहां पर 'कोयल' का मतलब पक्षी ना होकर 'कोयल' गांव की एक स्वस्थ परंपरा का नाम हैं | अजीब लगता हैं कि ऐसा कैसा परंपरा का नाम ?
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हमारा देश अधिकतर गांवो में ही बसता हैं | वैसे तो भारत की संस्कृति दुनियां की अनुठी व अलबेली संस्कृति हैं | जहां पग-पग पर अलग-अलग परंपराएं व रीति-रिवाज हैं | ऐसा ही एक रिवाज/परंपरा हमारे क्षेत्र में भी हैं जिसका नाम हैं 'कोयल' |
वैसे तो किसान के लिए हर दिन त्यौहार ही होता हैं पर कुछ त्यौहार व परंपराएं अलग अहसास का अनुभव करवाती हैं |
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कोयल- जिसमें किसान लोग वर्षभर में एकबार अपने खेत के रक्षक देवता रामदेवजी (अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग देवता) को चुरमें का भोग लगाते हैं |
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'कोयल' का आयोजन सर्दीओं के मौसम में करीब दो महिने तक उजाळे पक्ष में कीया जाता हैं | आयोजन करने वाला परिवार पहले पुरे गांव के लोगो को "हैला" भेजकर रात्रि के समय सभी को आमंत्रित करता हैं | इधर 'कोयल' के लिए बुलावा भेजने वाले के घर पर खुली गुआडी या आंगन में जलाने के लिए लकडीयां सजा दी जाती हैं | फिर रात्री के समय सात बजे से लोगों का आना शुरू हो जाता हैं | लोगों के आते ही लकडीयों में आग लगाई जाती हैं | जैसे-जैसे लोग आते रहते हैं वैसे-वैसे उन जलती लकडीयों के चारों तरफ बैठते रहते हैं | सभी के आने के बाद फिर दौर चलता हैं मनुहारों का ! जिसमें बीडी़-चिलम, चाय व अमल (जो अब लगभग बंधाणीयों तक ही सीमित हो गया हैं ) का | उधर कोयल का आयोजन करने वाले के घर पर धमीड़-धमीड़ की आवाज का गुंजना आरंभ होता हैं (मतलब रामदेव जी को भोग लगाने हेतु चुरमे की कुटाई आरंभ ) जिसमें गांव के युवा पुर्णतया सहयोग करते हैं | इधर लकडीयों पर आग अपने पुरे परवान पर बढने लगती हैं, जैसे-जैसे आग की लपटे उपर बढने लगती हैं वैसे-वैसे ईर्द-गिर्द बैठे ग्रामवासीयों के ठहाकें व उनकी बाते भी परवान पर चढनें लगती हैं | जिसमें न केवल खेती बल्कि गांव की समस्याओं से लेकर वर्तमान राजनीति को चिरते हुए बुजुर्गो के ठेठ बचपन की बाते भी होने लगती हैं | जोर के ठहाकों व भुतकाल के स्वर्णिम किस्सो को सुनकर ठंड खुद भी वहां से अपना पहरा हटाने लगती हैं और फिर होता हैं सर्दी में भी गर्मी का अहसास | दुसरी तरफ कुछ युवा खेजडी़ के नीचे बने थडकलै पर नाळ में अंगारे लिए हुए जाते दिखते हैं और फिर वहां बैठकर रामदेवजी को चुरमें का भोग चढाते हुए होठ हिलाते हैं | ऐसे लगता हैं कि जैसे उनके होठ शायद कह रहे हो "बावजी साजा-ताजा राखजो, पुरा गोव ने भी खुशहाल ऱाखजो, शोंती ऱाखजो, हमके पैदावार में लीला लैर करजौ|"
चुरमें का भोग लगाते ही सबके खाने की तैयारी भी शुरू हो जाती हैं | कैंप फायर के पास ही बिछे राळकै पर ही खाने का प्रबंध होता हैं | बच्चें इसमें अतिउत्साहित रहते हैं, उनके लिये ये मनोरंजन के साथ-साथ आनंद का त्यौहार भी होता हैं | थालीयां, साबळीयां, घी की वाडकी, सब्जी की वाल्टीयां लाई जाती हैं | और फिर शुरूआत होती हैं भरपुर चुरमा परोसने के साथ | कम से कम दो बार चुरमा तो लेना ही पडता हैं, चाहे आप कीतनी भी ना-नुकुर करलो | और दुसरी बार चुरमा नही लिया तो औळबा अलग से सुनने को मिलेगा कि "तुम्होरे वो फळाणा दादाजी-काकाजी तो इतने सोगरे तो केवल नाश्ते में ही हजम कर जाते थे और एक आप हैं कि दुसरी बार भी चुरमा लेने से कतरा रहे हैं | वैसे इस मैदान में बडे़-बडे़ सूरमे भी मौजुद होते हैं, जो तीसरी और चौथी बार भी अपनी बत्तीसी दिखाकर चुरमें वाले को अपनी तरफ आने का निमंत्रण देते भी दिखते हैं | आजकल चुरमें के अलावा हल्दी का भी प्रचलन 'कोयल' में चार चांद लगाने लगा हैं |
करीब तीन-चार घंटे तक चलने वाले इस स्वस्थ परंपरा में मेरे जैसे कई युवाओं  को बहुत कुछ सिखने को मीलता हैं | मैं तो इस 'कोयल' परंपरा को ग्रामीणांचल की लघु फील्म समझता हूं | जिसमें आपको गांव के सन्दर्भ में सैकडों साल पुराने गांव के झुंझार/मामाजी बावसी के इतिहास से लेकर मोदी-केजरीवाल व अनार की नवीनतम खेती की तकनीकी जानकारी भी उपलब्ध हो जाती  हैं |
अंत में गांवो की इन छोटी-छोटी परंपराओं को लेकर इतना ही कहना चाहुंगा, कि यदि ये परंपराएं जीवित रही तो गांव जिंदा रहेंगे और गांव जिंदा रहे तो ये देश और ये संस्कृति भी जिंदा रह सकेगी |
-🖋 दीप सिंह दूदवा

Saturday, January 20, 2018

किस्सा थार की एक मतवाली लड़की का

बात जो मैनें बुजुर्गो से सुनी
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ये किस्सा करीब-करीब तीन चार दशक पुराना हैं |
सिरोही के एक बडे़ ठिकाने की बारात बाडमेर के एक बडे ठिकाने में आई थी |
दोनो तरफ से बडे़ घराने होने की वजह से विवाह के इंतजाम राजशाही ठाट से कीये गये थे | रात भर में वर-वधु के फेरों व बारातियों के महफिल का शानदार शांतीपुर्ण आयोजन हुआ |
सुबह बाराती उठे | चाय-नाश्ते के बाद बारातीयों के स्नान का कार्यक्रम बना | उन दिनों भौतिक सुख सुविधाएं गांवो में कम हुआ करती थी, उस वक्त बारात गाँव के सार्वजनिक कुएँ पर ही नहाती थी | सिरोही के सिरदार नहाने के लिए तैयार हुए, काम थोडा मुश्किल था, क्योंकि पानी कुएं से बाल्टी द्वारा सींचकर निकालना था, जबकि सिरोही में पानी का जल स्तर उस वक्त कुछ ज्यादा ही उपर था और तब सिरोही के सिरदार बडे आरामी भी होते थे | कारण भी स्पष्ट था क्योंकि नदियां बहती थी, चारों तरफ कोयल की कूक थी | सौंफ, मक्का, अरण्डी, ज्वार, गेहूं व खरबुजे की खुब खेती थी |
नहाने का कार्यक्रम शुरू हुआ | एक-एक व्यक्ति बैठता और दुसरा व्यक्ति पानी कुएँ से निकालकर उनके उपर डालता | इस तरह पानी की बाल्टी सिंचने वाला व्यक्ति तीन-चार बारातीयों को स्नान करवाता और उसके थकने
 पर दुसरा आ जाता ..
इस तरह कीसी बाराती ने तीन को स्नान करवाया, तो कीसी ने चार को, एक सिरदार थे जो बारात में सबसे हष्ट-पुष्ट और ताकतवर थें, उन्होंने करीब दस-बारह बारातियों को स्नान करवा दिया | अब जिस सिरदार ने दस-बारह जनों को स्नान करवाया था, उनकी सब जने भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे, कि ये देखो ! ये तो बडे ही ताकतवर है, और सभी बाराती भी उनसे ताकत का राज पुछ रहे थे | और वे सिरदार बडे़ जोश में मुँछो पर ताव देकर अपनी ताकत का राज बता रहे थे |
इतने मे गाँव के नाइयों की लडकी का वहाँ पानी भरने के लिए आना हुआ |
लडकी को मालुम था, की ठाकुर साहब के यहाँ बारात आई है [उस समय ठाकुर साहब का गाँव मे बडा सम्मान था] |
इसलिए उस नाईयों की लडकी ने एक सिरदार से बाल्टी माँगते हुए कहा, 'आ बाल्टी दिरावो आप म्हारें गाँव रा मेहमान हो, सभी सिरदारो ने पानी सींच ने स्नान करवा दूँ |'
पहले तो सिरदारो ने आनाकानी करी, सोचा ये लड़की बिचारी एक-आद बाल्टी सींचकर थक जायेगी | लेकिन उसने बार-बार जिद करी तो उसको बाल्टी दे दी गई |
साथियों आपको विश्वास नहीं होगा, उस लड़की ने शेष बचे सभी करीब 40-50 बारातीयों को एक-एक करके अकेली लडकी ने कुँए से पानी सींच कर स्नान करवा दिया |
साथियों अब वहाँ खडा हर एक बाराती आश्चर्यचकित था !
वे सब यह दृश्य देख हैरान थे, की यहाँ की औरतें भी इतनी ताकतवर है, तो यहाँ के पुरुषों व सिरदारों का तो क्या कहना !
इतनी देर तक जो दो-चार बाल्टी कुएं से सिंचकर स्वयं ही अपनी प्रशंसा कर रहे थे वे सभी मौन थे | थार की धरती के प्रती सभी बाराती नतमस्तक हुएे जा रहे थे |
साथियों ! मारवाड के पुरुषों के साथ-साथ यहां की औरते भी बलशाली व स्वाभिमानी रही है | यहाँ का देशी खान-पान, रहन-सहन व यहाँ की परिस्थितियाँ ही इन्हें इतना मजबुत व संघर्षशील बनाये रखती हैं |

[मेरे इस कहानी का उद्देश्य धोरा-धरती के सादे जीवन मे छिपी एक ताकत से अवगत करवाना था |
वैसे आजकल सिरोही में भी पानी का स्तर नीचे चला गया है, वे भी अब पहले जितने आरामी नही रहे 😊]

- दीप सिंह दूदवा

Wednesday, January 17, 2018

जगतू की सगाई रस्म

आज कौआ घर के आंगन वाले नीम पर लगातार सुबह से ही बोले जा रहा था | कौऐं की मीठी बोली कीसी मेहमान के आने की संकेत थी | तब गांव में टेलीफोन व तार की सुविधा नहीं थी और ना ही इतने संसाधन थे | गांव के बुजुर्ग लोग पशु-पक्षियों व प्रकृति के संकेत मात्र से ही अनुमान लगा लेते थे कि आज क्या होने वाला हैं | आज कौऐं के लगातार बोलने से दादी ने अनुमान लगा दिया की आज तो पक्का ही जगतू को देखने के लिए मेहमान आ सकते हैं | क्योकिं कुछ दिन पहले ही पास के गांव वाले धरमाजी ने पडोसी धनजी के साथ समाचार भिजवाये थे, कि वो कानजी की लडकी जगतू को अपने पुत्र हरचंद के लिए कुछ दिनों में ही देखने आने का मानस बना रहे हैं इसलिए कानजी तक समाचार पहुंचाने का बोला था | ऐसे में कौएें की चेतावनी धरमाजी के आने के संकेत को पुख्ता कर रही थी |
अब तक घर के सारे सदस्य सतर्क हो चुके थे | सांझ भी धिरे-धिरे ढल रही थी | ऐसे में घर में हुई हलचल से जगतू भी सावचेत हो चुकी थी उसने आज अपने ननीहाल से मिली नीली ड्रैस पहन रखी थी जो उसके हल्के सांवले रंग में चार चांद लगा रही थी | सांझ ढलने के साथ जगतू अब चुल्हें पर आ चुकी थी | जैसे ही पहली रोटी बनी वैसे ही तवा हंसने लगा | उसने दादी को जोर से आवाज देते हुए कहा,"दादी मां आज तवो हंसे हैं"| दादी मां ने जगतू के पास में आकर कहा, "हां बेटा मेहमान आवे हैं रोटी अर सब्जी ठीक बणाइजे"| जगतू को पुर्वानुमान होते हुए भी दादी से मजाक में पुछा, " म्हारे मोमाळ ती मोमो आवता वेई घणा दिन हुआ हैं आया नै"| दादी ने बात टालते हुए कहा, "देख बेटा मेहमान आवै जदेइज ठा पडी़ कुण आवे हैं, खालसा बस रे आवण रो टाइम तो वै ग्यों हैं"| जगतू मन ही मन खुश हुए जा रही थी क्योकिं आज यदि वो ही मेहमान आते हैं, तो कल तक सगाई पक्की हो जायेगी |
सांय सात बजते ही गांव की तरफ बस का हॉर्न बजा, तब सब की निगाहें गांव की ओर से आने वाली पगडंडी पर टिक गई | देखा तो दुर से एक व्यक्ति साफा पहने हुए हाथ में लोहे का बक्सा लिए एक महिला के साथ कानजी के घर की ओर ही आ रहा हैं | कानजी ने खडे़ होकर निगाहें डाली, देखा की धरमाजी ही अपनी पत्नी के साथ आ रहे थे | कानजी ने अपने पुत्र गमना को आवाज देते हुए कहा,"अरे ! गमना धरमाजी रे सामो जा" | गमना ने फटाफट पगरकी पहनी और आने वाले गिनायत की मैजबानी के लिए सामने दौड़ पडा़ | गमना ने पहले राम-राम की फिर धरमाजी के हाथ से लोहे का बक्सा व उनकी पत्नी के हाथ से लाल घोडा़-काला घोडा़ चाय का थैला ले लिया और आगे-आगे चलने लगा | जैसे ही धरमाजी ने घर में प्रवेश कीया वैसे ही कानजी ने अतिउत्साह में राम-राम कहकर धरमाजी को गले लगा दिया | उनकी पत्नी को भी राम-राम कहकर अन्दर आने को कहा | कानजी की पत्नी ने जगतू की होने वाली सास की आगवानी की और आंगन के बीच में लाकर दरी बिछाकर बिठाया | जगतू की छोटी बहिन वगतू ने उनको पानी पिलाया | वगतू भी ग्यारवीं में पढ रही थी, एकबार तो धरमाजी की पत्नी ने सोचा यही जगतू हैं, पर एक कोने में चुल्हें पर खाना बनाते जगतू को देखकर ही समझ गई कि होने वाली बहू चुल्हें पर रसोईं बना रही हैं | कानजी की पत्नी उनसे समाचार लिए जा रही थी, तो धरमाजी की पत्नी जवाब के साथ-साथ चुल्हें पर रसोई बना रही जगतू को टुकर-टुकर देखे जा रही थी और मन ही मन खुश हुए जा रही थी, क्योंकि कुछ ही मीनटों बाद अपनी होने वाली बहू के हाथ का खाना नसीब होने खाने वाला जो था | पहले जगतू ने मेहमानो के लिए चाय बनाई और पुन: खाना बनाने में लग गई | दुसरी तरफ धरमाजी व कानजी के ठहाकों से अब पुरा घर गुंज रहा था |
 ऐसे लग रहा था जैसे दो मित्र लंबे समय बाद मिले हो | खुशी का जश्न इसलिए भी था कि दोनों को बराबर की जोडी़ मिल रही थी | एक तरफ धरमाजी के पुत्र हरचंद का इस वर्ष एमबीएसएस प्रथम वर्ष पुर्ण हुआ था | वहीं दुसरी तरफ कानजी की पुत्री जगतू ने भी इस बार बारहवीं कक्षा को पुरे जिलें में तृतीय स्थान के साथ पास कर, बीएससी प्रथम वर्ष में प्रथम रैंक के साथ मनपसंद कॉलेज में प्रवेश लिया था | दोनों के ही पुत्र-पुत्री प्रतिभावान थे| दोनो की आर्थिक स्थति तो सामान्य ही थी, पर दोनों ने ही बच्चों की शिक्षा को प्राथमिकता दी थी | बातो का दौर चल ही रहा था कि इतने में जगतू ने शर्माते हुए अपनी होने वाली सास के चरण स्पर्श कीये | सास ने गौर से जगतू के चेहरे को देखकर संतोष की सांस लेते हुए, "जुग-जुग जीओ बेटी" का आशिर्वाद दिया | अब तक खाना बन चुका था | धरमाजी के लिए बाहर खाना लगाया गया तो अन्दर की तरफ जगतू की होने वाली सास के लिए | अब मनवार का दौर चल पडा़, बाहर की तरफ कानजी अपने गिनायत को मनवार पर मनवार कर ठहाकें लगा रहे हैं तो अन्दर की तरफ जगतू की मां होने वाली समधन को मनवार कीये जा रही थी | इस तरह सबने हंसी-खुशी से खाना खाया | दोनों परिवार वालों ने एक दुसरे के समाचार लिए और एक दुसरे को पुर्णतया जाना | दोनों की ही बातो से लग रहा था कि दोनो बडे़ खुश थे |क्योंकि दोनों को जिस तरह के रिश्ते की चाह थी वैसा ही रिश्ता मिला था | इस तरह बातो ही बातो में आधी रात कब गुजरी कोई पता ही नहीं चला, अब सब राम-राम कहकर सोने चले गये |
जैसे ही सुबह हुई जगतू के परिवार के सभी सदस्य जल्दी से उठ गये और गाय-भैंस दुहने व अन्य काम में लग गये | जगतू ने सभी के लिएे चाय बनाई | मेहमान भी जग चुके थे |अब सबने एकसाथ बैठकर चाय पी | जगतू भी अब स्नान कर नये कपडों के साथ तैयार हो चुकी थी | अब जल्द ही सगाई की रस्म को भी सुबह-सुबह ही शुभ मुहुर्त में निपटाना था | क्योंकि धरमाजी के गांव की ओर जाने वाली एकमात्र बस भी दस बजे ही आने वाली थी | अब
जगतू को एक छोटे से बाजोट पर बिठाया गया | जगतू की सास ने उसे पहले तिलक लगाया फिर अंगुली में अंगुठी पहनाई और मुंह में गुड देते हुए अपने परिवार की परंपरा, संस्कृति के अनुरूप चलते हुए निरंतर पढने की भोळावण दी | जगतू भी अब थोडी खुल चुकी थी | उसने अपने सास से धोक देकर आशिर्वाद लेते हुए नौकरी लगने तक पढने की इच्छा जाहिर की | सास ने भी निरंतर पढते की बात कहते हुए मजाकिया लहजे में कहा कि," हरचंद भी डॉक्टर बणैला, इण वास्ते थू भी पढाई निरंतर राखजै नी तो थारी और हरचंद जोडी़ कीयां जमैळा" | इस बात पर सबने जोर का ठहाका लगाया जिससे घर का माहौल एकदम हल्का हो गया, अब ऐसा नहीं लग रहा था कि घर में कोई मेहमान हो क्योंकि अब सब जने एक ही परिवार के सदस्य लग रहे थे | इतने में धरमाजी ने भी घर में प्रवेश कीया और कानजी से मजाकिया लहजे में कहा कि" समधी जी डॉक्टर साहब रे घर ती डॉक्टरोणीसा रा दर्शन में भी कर लेवूं, बेटा ने आशिर्वाद रो हक तो अब म्हारों भी बणै हैं" | और धरमाजी ने जगतू को अपने पास बुलाया | जगतू ने अपने ससूर के धोक लगाई और सिर झुका कर खडी़ रही  | ससूर ने जेब से ग्यारह सौ रूपये निकालकर जगतू को देते हुए कहा कि, "बेटा खुब पढाई करजै, थानै ही म्हारों घर संभाळणों हैं"| इस तरह बातो ही बातो में जगतू व हरचंद के सगाई बंधन की रस्म को अंतिम रूप दिया जा रहा था, कि इतने में दुर से बस का हॉर्न सुनाई दिया | धरमाजी और उनकी पत्नी बस के लिए तैयार हुए | अब दोनों ही परिवार बेहद खुश थे | अब धरमाजी व उनकी पत्नी भारी मन से विदाई ले रहे थे | आखिर मन भारी हो भी क्युं न! उनकी बहू से विदा जो ले रहे थे | कानजी व उनकी पत्नी के साथ-साथ जगतू की दादी भी उन्हें घर से बाहर तक छोडने के लिए आये | समधी व समधन जी ने कानजी व उनकी पत्नी को अपने घर आने का न्यौता देते हुए विदाई ली | गमना ने उनके सामान को पकडा़ और बस स्टैंड तक छोडने गया | और इस तरफ घर में वगतू भी जगतू को टॉक्टरोणीसा-डॉक्टरोणीसा कहकर मजे लेने से नहीं चुक रही थी  | जगतू मजाक में वगतू की चोटी खींचकर मुक्के लगाते बनावटी गुस्से में कह रही थी, "बोल अब कहेगी डॉक्टरोणीसा"| इधर वगतू भी मिठाई खिलाने की शर्त पर ये शब्द नहीं कहने की जिद्द कर रही थी |
आज कानजी व उनका परिवार बडा़ खुश था | दादी भी पुरे जोश में थी | बहुत दिनों से उलाहने सुनने वाली दादी ने कहा कि, " आण दे अब उण वेलजी पंच ने, जो गांव-गांव केहतो फिरतो कि ऐहडो पछै कानीयों काई उणरी छोरी ने  डॉक्टर ती परणा देई, इती पढावणउ काई फायदो सामै लडको भी तो ढंग रो पढ्योडो मिलणो चाइजै"| कानजी ने मां को समझाते हुए कहा, "मां रैहण दे लोग तो केहता फिरैैला किण-किण रो मुंह आपां बंद कर सको" | इधर कानजी व उनकी पत्नी एकदम निश्चिंत हो चुके थे |अब जगतू व वगतू की पढाई के खातिर गांव के लोगो व पंचो का एक भी ताना कभी नहीं सुनना पडेगा |
चित्रपट चल रहा हैं दृश्य बदल रहे थे |
- 🖋 दीप सिंह दूदवा

Tuesday, January 16, 2018

मेहनत से मोहब्बत को मिला मुकाम

फोन की घंटी.... घंटी बजते देख प्रदीप ने अपने जेेब से मोबाईल बाहर निकाला ...  देखा राधा का फोन था ! राधा प्रदीप की पत्नी थी ! एक बार तो सोचा कि उसने मोबाईल में बेलेंस डलवाने के लिए या युं ही टाइम पास के लिए फोन कीया होगा ! पर सप्ताह भर से राधा से बात नही हुई थी, इसलिए पहली घंटी में ही फोन उठाते हुए बोला हैल्लो ! राधा....
सामने से आवाज आई ... हैल्लो! राधा नही ... मैडम राधा कहिये ... आजसे आपकी राधा ...मैडम राधा बन गई हैं .. आज अभी तृतीय श्रेणी शिक्षक भर्ती का अंतिम रिजल्ट आया हैं .... मेरा जिले में पच्चीसवीं रैंक पर चयन हुआ हैं ...  मुझे मिठाई खिलाने के लिए आज ही रवाना हो जाओ .. और हां वादे के अनुसार एन्ड्रॉयड फोन भी ले आना ... अब तुम खुश हो न .. अब तो मुझे बाहर घुमाने ले जाओगे न, अपने साथ ... अब दोस्त व उनकी बीवीयो से मेरा परिचय करवाते शर्म भी नही आयेगी न प्रदीप जी ... अब तो बहाने मत बनाना ...प्लीज यार ... पहला टूर उदयपुर ही रख लो न... आपके मित्र सीआई साहब बीसीयो बार मेरे संग आपको आने का निमंत्रण भी दे चुके हैं .... खुब मजा आयेगा .. बारिश के बाद तो उदयपुर भी बहुत हरा-भरा हो गया होगा .... सुना हैं वहा झीले भी खुब हैं .... अपन चलेंगे न प्रदीप जी !
राधा एक ही रफ्तार से बोली जा रही थी .... अपने में दबे हजारों ख्वाब उडेल दिये ....
प्रदीप चाहकर भी कोई लब्ज बाहर नही निकाल पा रहा था !  बडी़ मुश्किल से दो शब्द बोल पाया, "राधा चार घंटे में मैं तेरे पास ही आता हूं, वहीं आकर कुछ कह पाउंगा" ! और फोन रख दिया .....
और प्रदीप आंख से पानी पोछते हुए पुराने ख्यालो में खो गया .... .......... ..........
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{प्रदीप के दिमाग में फिल्म चलने लगी .... दस साल पहले इसी राधा का विरोध करते हुए मां-बाप को क्या-क्या नहीं सुनाया था ... कानो में गुंजने लगी वो बाते "तुम मेरे मां बाप नही जल्लाद हो जल्लाद .... मैं एमबीबीएस .... और वो पांचवी पास गंवार .... कैसे जमेगी हमारी जोडी ... कैसे वो मुझे समझ पायेगी .... मेरे दोस्त मेरी हंसी उडायेंगे ... .................... तुम मुझे समझते क्युं नही हो ...... ज्यादा से ज्यादा पंच-पटेल अपने परिवार को समाज से बाहर ही करेंगे न ... ... कि ठाळेभुले ने धर्मजी की नाक कटवा दी !  मैं आज डॉक्टर हूं  डॉक्टर ! समाज से बाहर करते ही मैं पंचो को पन्द्रह लाख दंड भर दुंगा ! और समाज में सम्मिलित करवा दुंगा !  पर ये रिश्ता मुझे मंजुर नहीं , आपने मेरी शादी इतनी छोटी उम्र (नौ साल)  में क्युं कर दी  .....??
और अंत में आंख में आंसु बहाते हुए बाप ने कहा था, " हां मैने झक मार दिया, सात बीघा जमीन बेच तुझे डॉक्टर बनाया हैं ! जमीन नही बेचता तो ये सवाल तुझे भी नही सुझते, आज के बाद मुंह मत दिखाना ...."
और अंत में मुझे भारी मन से ये रिश्ता स्वीकार करना पडा़ था !
राधा केवल पांचवी कक्षा पास ही थी, लेकिन बडी़ सुशील व सुन्दर थी !  पढाई में भी तेज थी, पर उसके गांव में पांचवी तक ही स्कुल थी सो आगे पढना नसीब ना हुआ था उसे ...
प्रथम बार जब राधा को गौना कर उसे ससुराल लाया गया था तब से प्रदीप उसकी वाकपटुता और समझदारी से बडा प्रभावित था .....
एक दिन की बात हैं .... प्रदीप खाट पर सोया हुआ झुंपी के बाहर नजर गढाये कीसी ख्यालो मे खोया हुआ था ..... तभी एक आवाज गुंजी, " सुणो ! म्हे भी पढणी चाहूं"
इस आवाज से प्रदीप में एक नवीन उर्जा का संचार हुआ और राधा की आंख में झांकते हुए कहा, "हां पढ तो सके है, पर उण वास्ते खुब मेहनत करणी पडेला" !
राधा-  "हां तो म्हे तैयार हूं ! आप म्हाने पढाई करवा दो नी, मैं पढ लु ला .. ..!
दुसरे दिन ही प्रदीप ने राधा का आठवीं में प्राइवेट फॉर्म भरवा दिया ! और इस तरह  आठवी प्राइवेट, दसवी ओपन,  बारहवीं  ओपन, कॉलेज प्राइवेट, बीएड कोटा ओपन युनिवर्सिटी और फिर  रीट .... !
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आज प्रदीप बहुत खुश था ! प्रदीप ने ताबड तोड स्नान कीया और कार निकाली ....फिर चल दिया अपने ससुराल की ओर ! बीच में कस्बा आया वहां से राधा के लिए आई फोन, मिठाई  और साडी खरीदी ... !
अब प्रदीप मीटरो-मीटर गाडी भगाये जा रहा था ...!
चार घंटे के सफर बाद अपने ससुराल पहुंचा, तो पता चला कि ससुरजी व सालाजी तो  जोधपुर कीसी काम से गये हुए हैं ...!
प्रदीप जैसे ही गाडी खडी कर बाहर निकला तो देखा कि राधा सामने ही खडी-खडी मुस्करा रही थी !
प्रदीप ने अपनी गाडी से आईफोन,साडी और मिठाई बाहर निकाली और चल दिया राधा की तरफ ... !
जैसे ही राधा के पास पहुंचा....  राधा प्रदीप के गले लिपट गई, और दोनो एक दुसरे के ख्वाबो में खो गये !
करीब पांच मीनट बाद मैं... मैं ..मैं .. की आवाज ने उनकी चुप्पी को तोडा़ ! देखा, तो पास में बकरी का बच्चा दो प्रेमीयों के मिलन का साक्षी बन रहा था ! और वो ऐसे मैं..मैं..मैं कर रहा था जैसे, प्रदीप-राधा के पांवो में  मुंह मारते हुए प्यार का म्लहार राग गा रहा हो ! जब दोनो एक दुसरे से दुर हटे, तो देखा दोनो की आंखे भीगी-भीगी थी....... जैसे सात जन्म साथ निभाने का वादा कर रही हो !
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✍ दीप सिंह दूदवा

Monday, January 15, 2018

पसरते अखबार, ऊबते पाठक

मुख्य मार्ग से दुर और छोटा गांव होने की वजह से अभी तक मेरा गांव डामरीकरण सड़क से नहीं जुड पाया था । पक्की सडक नहीं होने की वजह से गांव में साधन बहुत ही कम समय-चौघडी ही आते थे | उस समय गांव में साधन के नाम पर कुछ लोगो के पास ट्रैक्टर या एक-दो जीपें ही हुआ करती थी । बस के नाम पर एक बस आती थी जो भीनमाल से सुबह आठ बजे रवाना होकर साढे ग्यारह बजे के करीब मेरे गांव पहुंचती थी । रास्ता कच्चा होने की वजह से बस में एक मजदूर फावडा के लिए हमेशा बस के साथ ही रहता था | न जाने कौनसे वक्त बस कच्चे रास्ते में फंस जाये । बस के फंसने पर मजदूर, बस ड्राइवर और कंडक्टर के साथ-साथ सवारीयां भी नीचे उतरकर टायर के नीचे से रेत हटाकर सिणीये डालकर बस को धक्का देकर बाहर निकालते थे । और इस तरिके से बस बाहर निकलती थी और आगे का सफर तय होता था ।
बात करीब 1996-97 की है घर में दाता व पिताजी पढे लिखे थे, सो अखबार की हमेशा कमी खलती थी । इसलिए देश-दुनियां, फसलों के भाव-ताव और समसामयिक खबरों से जुडे रहने के लिए 1996 में भीनमाल से राजस्थान पत्रिका चालू करवाया गया । भीनमाल से पत्रिका हॉकर अखबार सुबह आठ बजे वहाँ से रवाना होने वाली बस मे चढा़ देता था और साढे ग्यारह बजे मेरे घर के पास से गुजरते वक्त कंडक्टर अखबार मेरे घर के पास फेंक देता था।
उन दिनों अखबार देखने/ पढने के लिऐ हमेशा चार-पांच चेहरे मेरे घर के पास बस का इंतजार कीया करते थे । राजस्थान पत्रिका हाथ में आते ही चेहरे पर अजीब मुस्कान आती थी | या यूं लगता था जैसे बहुत बर्षो बाद कोई रिश्तेदार बस से उतरकर हमारे गले लिपट रहा हो। बडा सुकुन मिलता था | अखबार के पहले पेज से लेकर अंतिम पेज का एक-एक अक्षर बडे गौ़र से पढते थे । लोगो के पास समय पर्याप्त था | अखबार की खबरे पढने के लिए लोग दुर-दुर से अपने खेतो से चले आते थे, फिर वहां फसलों के भाव से लेकर देश दुनियां भर की खबरो से अवगत होते थे । या यूं कहे कि मात्र एक अखबार की प्रति,  राजस्थान पत्रिका ने गांव के लोगों बीच एक अलग रिश्ता बना दिया था ।
हॉकर को हम अखबार के दुगुने दाम देया करते थे क्योंकि बस में चढा़ने की उसकी डेली की गारण्टी थी | लेकिन हमारे लिए उस एक अखबार का दाम तीन से चौगुना हो जाता था क्योंकि कई बार बस मे बैठे हुए यात्री अखबार पढने को ले लेते थे और वे पढते हुए भुल से बिच मे ले उतरते  थे, या कई बार कंडक्टर और ड्राइवर नये-नये होने की वजह से अखबार डालने की जगह का ध्यान नही होने से आगे लेकर चले जाते थे। महिने मे दस-बारह दिन ही अखबार आता था फिर भी कोई गम नही था।
हमे छोटी सी उम्र से ही अखबार पढने का चस्का लग गया था। जिस दिन अखबार हाथ नहीं लगता था, उस दौरान अजीब-सी बैचैनी होती थी। अखबार पढने में दो-चार घंटे लगा देते थे क्योंकि पुरा का पुरा अखबार पढना एक आदत-सी हो गई थी। उस दौर में अखबार में विज्ञापन नाम मात्र के हुआ करते थे ।
            समय बदलता गया 1999 में मेरा गांव डामर सडक से जुड गया | बसों के आवागमन की संख्या बढ गई | एक बस की जगह सात-आठ बसे आने लगी । सडक बनने से अन्य साधनों की संख्या में भी भारी बढोतरी हुई । सप्ताह में दो-तीन बार आने वाला अखबार भी डेली आने लगा | गांव में दिनोंदिन अखबारो की संख्या भी बढी, अब एक से बढकर बीस अखबार आने लगे । हर घर गाडी,ट्रैक्टर और मोटरसाइकिल आम बात हो गई । गांव के लोग कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी का सफर तय करने लग गये। पुलिस की गाडी देखकर बबुल और खिंप की आड मे छिपने वाले लोग पुलिस से आंख से आंख मिलाकर बात करने लग गये |गांव में बकरीयों की जगह घोडो ने ले ली | आठ सौ से हजार रूपये में बिकने वाली बकरीयों की जगह 31लाख में बिकने वाले घोडो ने ले ली ... समय कदम बढा रहा हैं ... अगली बार 31लाख की जगह 41 लाख में घोडा बिक जाय तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी .... समय की गति को कौन नियंत्रित कर सकता हैं ।
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अब आता हूं मेरी बात पर ....
बचपन से अखबार मुझ सहित हजारों लोगो की दिनचर्या का आम हिस्सा रहा हैं | हम जिस दिन अखबार नही पढ पाते उस दिन यूं महसूस होता है जैसे आज कुछ मिस किया हैं | लेकिन आज अखबार पढने वाले पाठकों की इस प्रवृति का अखबार निकालने वाले घराने चाहे राजस्थान पत्रिका हो या भास्कर | दैनिक नवज्योति हो राष्ट्रदुत |या सभी अन्तर्राष्ट्रीय अखबार जो भरपुर दोहन करते हैं । अखबारों मे आजकल समाचार कम और विज्ञापन ज्यादा होते हैं । कभी समय था जब समाचारों के बिच विज्ञापन हुआ करते थे लेकिन आजकल विज्ञापनो के बिच समाचार ढूंढने पडते हैं । पहले विज्ञापनो को अंतिम पेज पर स्थान दिया जाता था, लेकिन आजकल पहले पेज से ही कभी-कभी तो लगातार चार पांच पेज विज्ञापन के ही दिखते हैं । आज पाठकों को मजबूरन ही न चाहते हुए भी विज्ञापनों पर नजर डालनी पडती हैं । हद तो तब होती हैं जब अखबारों को बेचने के लिए तरह तरह के ऑफर निकालने पड जाते हैं | जो  अखबार कभी खबरों के दम पर बिका करते थे और लोगो में अखबारों की विश्वसनीयता बनी रहती थी । आजकल विज्ञापनों के युग में अखबार अपनी विश्वसनीयता खोते जा रहे हैं | लोगो की पहले जो आस्था अखबारों में हुआ करती थी, अब दिन-प्रतिदिन घटती जा रही हैं । सोसल मिडिया के जमाने में समय रहते अखबार घरानों ने समय रहते पाठकों की समस्या पर ध्यान नही दिया तो अखबारों की लोकप्रियता के साथ-साथ प्रिंटमिडिया पर भी खतरा मंडराता  हुआ नजर आयेगा ।
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🖋दीपसिंह दूदवा
( मेरी 6 नवम्बर 2016 की फेसबुक वॉल से पोस्ट)

महात्मा गांधी: पुण्यतिथि पर शत् शत् नमन |

महात्मा गांधी : अहिंसा के पूजारी, राष्ट्रपिता व भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अगुवा | महात्मा गांधी द्वारा अपनी पत्नी कस्तूरबा को लिखे एक ...